जो भी प्रभु ने दिया उसे प्रभु का प्रसाद समझ कर सहर्ष स्वीकार करना चाहिए और उसे प्रभु को हीं समर्पित कर ग्रहण करना चाहिए। कहा भी गया है…. त्वदीयम् वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पयेत् । जो भी हम अर्जित कर रहे हैं उस पर हमारा कोई हक नहीं है और न इसे अर्जित करने में हमारी कोई प्रभुताई है। सुख दुख, हर्ष विषाद, निन्दा प्रशंसा, संयोग वियोग सबमें सम भाव रखते हुए इसे स्वीकार करना चाहिए। जीवन में भूल चूक होती रहती है। इसे विनम्रता पूर्वक स्वीकार कर प्रभु से क्षमा याचना करनी चाहिए। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—–
तूने दिया जो हे प्रभू ,
तुझको समर्पित कर रहा ।
तेरी कृपा से हे प्रभू ,
जोभि मेरि कमाइ है ।
इस पर न कोई हक मेरा ,
नहिं मेरि कछु प्रभुताइ है ।
जोभी है मेरा सब है तेरा ,
तुझको हिं अर्पित कर रहा ।
तूने दिया जो हे प्रभू ,
तुझको समर्पित कर रहा ।
मेरे लिए तो हे प्रभू ,
निन्दा न कोइ बड़ाइ है ।
सुख दुख तो दोनों हे प्रभू ,
मेरे तो भाई भाइ हैं ।
तेरा प्रसाद समझ प्रभू ,
बड़ि प्रेम से सिर धर रहा ।
तूने दिया जो हे प्रभू ,
तुझको समर्पित कर रहा ।
जो भूल मुझसे हो गई ,
उस भूल को करना छमा ।
मैं तो तेरा बच्चा प्रभू ,
तुम हो मेरे माता पिता ।
अब कर कृपा मुझ पर प्रभू ,
विनती ये सेवक कर रहा ।
तूने दिया जो हे प्रभू ,
तुझको समर्पित कर रहा ।
रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र