प्रभु तो सबके हृदय में हीं निवास करते हैं पर मनुष्य ममता मोह में फंसे होने के कारण उन्हें देख नहीं पाता और मंदिर मंदिर भटकते फिरता है। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना:—–
सुन रे नर मैं तो रहूँ सदा,
तेरे पावन हृदयस्थल में।
तू खोज रहा मुझ को निशदिन,
मंदिर – मंदिर बन बागन में।।
दरश कहाँ से हो पाए,
तू मुझे ढूँढ़ नहिं पाता है।
मन के अन्दर जो खोज पाय,
बस वही मुझे तो पाता है।।
जब दर्शन करना हो मेरा,
तब मन को मन से लगाओ तुम।
कान्हा तो तुझको खड़ा मिलेगा,
दर्शन कर प्यास बुझाओ तुम।।
रचनाकार :
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र