हरो विकल मनवाँ की पीर ……..-ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

‘राधा’ को बड़ सोच हृदय में, साँवरे आए न म्हारे।
सीता बैठि अशोक-वाटिका, प्रियतम ‘राम’ पुकारे॥१॥

निष्ठुर बने ‘कृष्ण ‘रघुवीरा’, हरें न विकल प्रिया मन पीर।
क्या तुम ऐसेहिं निठुर रहोगे, ‘राधा’ ‘सिय’ धारें कस धीर॥२॥

‘ब्रह्मेश्वर’ भी तेरे विरह में, है अतिव्याकुल और अधीर।
निष्ठुरता छोड़ो हे प्रियतम! हरो विकल मनवाँ की पीर॥३॥

 

रचनाकार :

ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र