कान्हा राधा को होली खेलने के लिए बुलाते हैं, राधा कहतीं हैं कि हे साँवरिया तुम मुझे क्यूँ बुलाते हो मैं तुम्हारे साथ होली नहीं खेलूँगी, तुम मुझे बहुत सताते हो। राधे कृष्ण का यह अलौकिक प्रेम मन और वाणी से परे है। कृष्ण द्वारा सताए जाने के बाद भी राधा कहतीं हैं कि हे मनमोहन तुम बड़ा हीं छलिया हो, बाँसुरी की मधुर तान सुना कर मेरे मन को मोह लेते हो, मेरे चित्त को चुरा लेते हो। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना:–—
न खेलूँ साँवरे होली,
मुझे तुम क्यूँ बुलाते हो ?
मैं जाऊँ जब भी खेलन को,
बड़ा ही तुम सताते हो ।
मेरी बैयाँ मरोरत हो,
चुनरिया खींच लेते हो ।
न खेलूँ साँवरे होली,
मुझे तुम क्यूँ………..
डगरिया रोक लेते हो,
चुनरिया रंग देते हो ।
बड़ा हीं तुम तो लाँगर हो,
सँवरिया क्यूँ सताते हो ?
न खेलूँ साँवरे होली,
मुझे तुम क्यूँ………..
बँसुरिया की मधुर तानों,
से मन को मोह लेते हो ।
बड़ा हीं तुम तो छलिया हो,
मेरे चित को चुराते हो ।
न खेलूँ साँवरे होली,
मुझे तुम क्यूँ………..
ये ब्रह्मेश्वर खेलन होली,
प्रतीक्षा कर रहा तेरी ।
कब आओगे तु मनमोहन,
बिरद अपनी निभाते हो ।
न खेलूँ साँवरे होली,
मुझे तुम क्यूँ…………