‘उमेद’
(भोजपुरी कविता)
ई आखिर कवन चीज़ के — तोर-मोर?
केकरा से — तोर-मोर?!
एक्के अंगना में खेललऽ,
एक्के अंगना में पललऽ,
सनातन से इहे माटी में बढ़लऽ!
आ आज हेतना बड़ हो गईलऽ लोगिन कि
दू कट्ठा ज़मीन खातिर माथ फोड़ऽउअल करऽ तरऽ!
का लईका लेखा — ‘माई हमार कि तोहार?’ पऽ
एक-दूसरा के जान लेवे पऽ उतारू हो गईल बाड़ऽ लोगिन??
जबकि ई जानेलऽ,
जब वकत आई, तऽ
एही माई के गोदिया में सुतबऽ,
एही माई के अंचरा ओढ़बऽ।
ई जमीनवा जदि तहरे नाम हो जाई, तऽ
का एकरा ढो के जमलोक ले जइबऽ??
अपना-पराया के समझ पइदा करऽ।
घर के आटा गिल कर के आखिर
कै दिन बाहिर खईबऽ?
आ अइसे कर के काऽ उजिअइबऽ?
आ केतना दिन उजिअइबऽ?
पुष्पेश तऽ इहे कहींहें कि —
“बबुआ लोगिन! हेतने जोश चढ़ऽता, तऽ
आपन ई घर खातिर कुछ कमा।
मिल के रहऽ आ खून कऽ रिश्ता निभा।”
तनिक सोचऽ —
आखिर माईयो-बाबूजी के तऽ
हमनी से कछुओं उमेद होई??!!