गोमिया (बोकारो) से — रवि कुमार (थानाप्रभारी )

कभी किसी ने कहा था, “भूख और बंदूक का रिश्ता सबसे पुराना है।” शायद यही रिश्ता एक किसान को नक्सली बना देता है — कभी बैल के वादे पर, तो कभी पेट की आग पर।
गोमिया थाना क्षेत्र के सुदूरवर्ती जंगलों में रहने वाला फूलचंद किस्कू उर्फ राजू आज पुलिस की हिरासत में है। वही फूलचंद, जिसे दस वर्ष पहले उग्रवादियों ने खेती के लिए एक जोड़ा बैल देने का वादा कर संगठन में शामिल कर लिया था। लेकिन विडंबना देखिए – न बैल मिला, न खेती, और न ही वह संगठन बचा जिसने यह वादा किया था। गिरोह के लगभग सभी सदस्य पुलिस-नक्सल मुठभेड़ों में मारे जा चुके हैं। बचा है तो सिर्फ़ वह अधूरा वादा – और फूलचंद किस्कू पर दर्ज 15 से अधिक हत्या, लूट, डकैती और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने के मामले।

दरिद्रता या अपराध — कौन ज़िम्मेदार?
फूलचंद किस्कू का घर धमधरवा गाँव में है – घने जंगलों के बीच, जहां तक पहुँचना भी आसान नहीं। गाँव से करीब एक किलोमीटर दूर, जंगल के बीच मिट्टी और बांस की टेढ़ी दीवारों वाला एक घर… बरसात के निशान अब भी दीवारों पर जमे हैं। छत पर पुराने टिन के टुकड़े किसी तरह टिके हुए हैं, जो हवा के हर झोंके के साथ कांपते हैं। दरवाज़े की जगह फटा कपड़ा और जंग खाई टाटी – मानो भीतर का अंधेरा बाहर झाँकने से भी डरता हो।
जब पुलिस टीम विशेष अभियान के तहत उसके घर पहुँची, तो फूलचंद वहाँ नहीं था। सामने आई उसकी बहू – फटे कपड़ों में, भय और असहायता से भरी हुई। उसने बताया कि फूलचंद के “अपराधी” ठहर जाने के कारण न किसी का आधार कार्ड बना, न कोई सरकारी योजना का लाभ मिला। गाँव वाले उन्हें अछूत की तरह देखते हैं।
एक और धोखा, एक और बर्बादी
पुलिस ने फूलचंद के परिवार को आत्मसमर्पण नीति की जानकारी दी, पर उसकी बहू के चेहरे पर झलकता संशय बता रहा था कि फूलचंद अब कानून नहीं, जंगल पर भरोसा करता है। कुछ दिनों बाद पुलिस ने पुनः छापामारी की और फूलचंद किस्कू को उसके घर के पास जंगल से गिरफ्तार कर लिया।
फूलचंद की गिरफ्तारी से एक बात फिर साबित हुई – नक्सल आंदोलन ने जितना शोषक वर्ग को नहीं, उतना गरीब वर्ग को बर्बाद किया है।
जिन संगठनों ने “समाज सुधार” के नाम पर हथियार उठाए, वही आज समाज के सबसे गरीब, अति पिछड़े और भोले-भाले आदिवासियों के जीवन को तबाह कर रहे हैं।
विकास की राह में सबसे बड़ा अवरोध
कभी जिन वामपंथी संगठनों ने सुदूर ग्रामीण इलाकों में सरकारी विफलताओं का लाभ उठाकर जनसमर्थन हासिल किया, वही आज विकास और शिक्षा के सबसे बड़े शत्रु बन चुके हैं। वे रोजगार, सुरक्षा और बराबरी का सपना दिखाकर युवाओं को अपने जाल में फँसाते हैं – और फिर उन्हें हिंसा, लूट और मौत के रास्ते पर धकेल देते हैं।
सच्चाई यह है कि नक्सलवाद अब विचारधारा नहीं, एक अपराध उद्योग बन चुका है – जहाँ शीर्ष नेता करोड़ों की संपत्ति जमा कर रहे हैं, जबकि नीचे के स्तर पर लड़ने वाला गरीब आदिवासी सिर्फ़ बारूद और बदहाली का हिस्सा बनकर रह गया है।
एक जोड़ा बैल की कीमत – एक जीवन की बर्बादी
फूलचंद किस्कू की कहानी इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि कैसे गरीबी और छलावे ने एक किसान को अपराधी बना दिया।
उसे एक जोड़ा बैल चाहिए था – ताकि वह खेत जोत सके, परिवार पाल सके, सम्मान से जी सके।
लेकिन मिला क्या?
दस साल का अंधेरा, दर-दर की ठोकरें, और एक ऐसी विरासत जिसमें न कोई खेती बची, न इंसानियत।
यह कहानी सिर्फ फूलचंद की नहीं – यह उस पूरे वर्ग की कहानी है जिसे विकास के नाम पर ठगा गया, और क्रांति के नाम पर कुचल दिया गया।

