– Purnendu pusspesh
आजकल दुनिया बदल चुकी है। पहले लोग सुबह उठकर अखबार की सुर्खियाँ पढ़ते थे, आज जागते ही मोबाइल उठाते हैं और स्क्रीन पर उँगलियाँ दौड़ाने लगते हैं। सोशल मीडिया अब सिर्फ ऐप नहीं, हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है। ऐसा लगता है मानो पूरी दुनिया जेब में आ गई हो। लेकिन सवाल ये है -क्या इस सुविधा ने हमें समझदार बनाया है या और ज़्यादा उलझा दिया है?
सोशल मीडिया की सबसे बड़ी खासियत ये है कि यहाँ सब कुछ मिल जाता है -मनोरंजन, जानकारी, सीख, संगीत, किताबें, और हाँ… बेहूदगी भी। इंटरनेट पर जैसा कंटेंट मिलता है, वो बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सब पर असर डाल रहा है। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे गेम और रील्स में ऐसे खो जाते हैं कि खाने का टाइम हो या सोने का, मोबाइल हाथों से छूटता ही नहीं। कई बच्चे अब बातचीत से ज़्यादा स्क्रीन से रिश्ता बना चुके हैं। ये बात मज़ाक नहीं, एक गंभीर चिंता है।
बहुत से लोगों का कहना है कि सोशल मीडिया ने दुनिया को जोड़ दिया है, पर सच ये है कि इसने घरों के अंदर दूरी बढ़ा दी है। एक ही घर में चार लोग हों, तो चारों अपने-अपने फोन में बिज़ी दिखते हैं। प्यार और बातचीत कम हो गई, नोटिफिकेशन और ऑनलाइन स्टेटस ज़्यादा अहम हो गया।
अब बात आती है गलत जानकारी, गाली-गलौज और नफरती कंटेंट की। झूठी खबरें, अफवाहें, भड़काने वाले पोस्ट और अपमानजनक वीडियो तो जैसे रोज़ का हिस्सा बन चुके हैं। कभी-कभी ये चीज़ें समाज में विवाद, हिंसा और तनाव पैदा कर देती हैं। यही वजह है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए एक नियामक संस्था बनाने की बात कही है। लोग इसे राहत की तरह देख रहे हैं, क्योंकि अब तक ये प्लेटफ़ॉर्म बिना किसी नियम के मनमानी पर चल रहा था।
लेकिन हर बात के दो पहलू होते हैं। जैसे ही नियंत्रण की बात आती है, अभिव्यक्ति की आज़ादी का मुद्दा सामने आ जाता है। लोग कहते हैं -“हमें बोलने से मत रोको।” लेकिन सवाल ये है कि बोलने की आज़ादी और गाली देने की खुली छूट में फर्क तो होना चाहिए। अगर किसी की आस्था, भावनाएँ या सम्मान लगातार चोटिल हो रहे हों, तो क्या चुप रहना ही समाधान है? शायद नहीं।
दुनियाभर में कई देश सोशल मीडिया के लिए नियम बना रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया ने तो 16 साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखने का कानून बना दिया है। भारत में भी ऐसी सोच शुरू हो चुकी है, लेकिन इसे लागू करना आसान नहीं होगा, क्योंकि यहाँ बहस बिना तर्क के और विरोध बिना सोच के होती है।
लेकिन चाहे बहस हो या फैसला -एक बात साफ है: सोशल मीडिया अब हमारी ज़िंदगी से बाहर नहीं होने वाला। इसलिए इसका इस्तेमाल कैसे हो, उस पर बात ज़रूर होनी चाहिए। ज़रूरी ये है कि हम सोशल मीडिया को इस्तेमाल करें, न कि वो हमें इस्तेमाल करने लगे।
नियमन जरूरी है, लेकिन उससे भी ज़रूरी है समझदारी। नियम सरकार बनाएगी, पर आदतें हमें खुद बदलनी होंगी।
हो सकता है भविष्य में सोशल मीडिया वही जगह बने, जहाँ लोग सीखें, जुड़ें और समझ विकसित करें न कि लड़ें, बिगड़ें या भटकें।
या फिर वही रहेगा जो अभी है -एक डिजिटल जंगल।
फैसला हमें करना है।

