नए केंद्रीय अध्यक्ष और झारखण्ड की राजनीति में पुनर्संतुलन की चुनौती

– पूर्णेन्दु पुष्पेश   

अपनी कर्मठता और सुविवेक के लिए जाने जाने वाले नितिन नबीन के भाजपा का कार्यकारी अध्यक्ष बनने के बाद झारखण्ड में राजनीतिक समीकरण कैसे बनेंगे, यह चर्चा का विषय हो सकता है, लेकिन इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि यह परिवर्तन झारखण्ड भाजपा के लिए कितना लाभकारी सिद्ध होगा। राजनीति में चेहरे बदलना आसान है, पर संस्कृति बदलना कठिन। नितिन नबीन की जो छवि अब तक सामने आई है, वह यह संकेत देती है कि वे फेवरेटिज़्म को बढ़ावा देने वाले नेता नहीं माने जाते। यदि यह छवि व्यवहार में भी उतरती है, तो झारखण्ड भाजपा के लिए यह बदलाव सिर्फ औपचारिक नहीं बल्कि संरचनात्मक भी हो सकता है।

हालिया बिहार चुनाव के दौरान नितिन नबीन का यह कथन कि “भाजपा मज़बूत होगी तो सभी कार्यकर्ता मज़बूत होंगे”, केवल एक राजनीतिक नारा नहीं बल्कि संगठनात्मक दर्शन का संकेत है। यह विचार झारखण्ड जैसे राज्य के लिए और भी प्रासंगिक हो जाता है, जहाँ भाजपा के प्रति जनसमर्थन की कमी नहीं है, पर वह समर्थन सत्ता में रूपांतरित नहीं हो पा रहा। स्पष्ट शब्दों में कहें तो झारखण्ड में भाजपा को पसंद करने वाले बहुत हैं, पर भाजपा को जिताने वाले संगठनात्मक ढांचे की भारी कमी है।

झारखण्ड की समस्या यह नहीं है कि यहाँ मोदी या भाजपा का जनाधार कमजोर है। समस्या यह है कि यह जनाधार सही दिशा में संगठित नहीं हो पा रहा। इसके पीछे बीते वर्षों से चला आ रहा आंतरिक अहंकार, गुटबाजी और आपसी अविश्वास एक बड़ा कारण रहा है। भाजपा हो या उससे जुड़ा वैचारिक परिवार, झारखण्ड में कार्यकर्ताओं के बीच खेमेबंदी ने पार्टी को भीतर से खोखला किया है। संगठन के भीतर “मैं” और “मेरा गुट” की राजनीति ने “हम” और “पार्टी” की भावना को पीछे धकेल दिया है।

युवा कार्यकर्ता, जो किसी भी पार्टी की रीढ़ होते हैं, झारखण्ड में सबसे अधिक उपेक्षित दिखाई देते हैं। जो समर्पित हैं, जो जमीन पर काम करते हैं, उन्हें या तो नजरअंदाज किया गया या फिर बड़े नेताओं के खेमों में पिसने के लिए छोड़ दिया गया। परिणाम यह हुआ कि जो कार्यकर्ता आगे बढ़ सकते थे, वे या तो निष्क्रिय हो गए या राजनीति से मोहभंग का शिकार हो गए। संगठन का यह आत्मघाती रवैया ही वह कारण है, जिसने झारखण्ड भाजपा को बार-बार संभावनाओं के बावजूद कमजोर स्थिति में ला खड़ा किया।

वर्तमान प्रदेश नेतृत्व की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है। वह नेतृत्व निर्णय लेने से अधिक संतुलन साधने में उलझा रहा है। खानापूर्ति की राजनीति ने संगठन की धार को कुंद कर दिया है। आम जनता के बीच हो या विधानसभा के गलियारों में, झारखण्ड भाजपा की बात का वजन लगातार घटता गया है। विडंबना यह है कि इस गिरते प्रभाव के बावजूद आत्ममंथन के बजाय आत्मसंतोष का भाव हावी रहा। “हम सही हैं, गलती जनता की है” जैसी मानसिकता ने पार्टी को और नुकसान पहुंचाया।

ऐसे में नितिन नबीन का आगमन केवल एक संगठनात्मक नियुक्ति नहीं, बल्कि एक अवसर है। अवसर इस बात का कि झारखण्ड भाजपा और उससे जुड़े संगठनों को उनके मिथ्या अहंकार की कोठरी से बाहर निकाला जाए। यदि केंद्रीय नेतृत्व वास्तव में राष्ट्रहित और प्रदेशहित को प्राथमिकता देता है, तो उसे यह स्वीकार करना होगा कि झारखण्ड में समस्या चेहरे की नहीं, संस्कृति की है। और संस्कृति बदलने के लिए कभी-कभी कठोर निर्णय भी लेने पड़ते हैं।

झारखण्ड में भाजपा और आरएसएस दोनों को यह समझना होगा कि वैचारिक एकता का अर्थ संगठनात्मक जड़ता नहीं होता। मतभेद हो सकते हैं, लेकिन वे सार्वजनिक प्रदर्शन और आपसी तोड़फोड़ में नहीं बदलने चाहिए। वास्तविक एकता का अर्थ है -स्पष्ट लक्ष्य, स्पष्ट नेतृत्व और स्पष्ट जवाबदेही। जब तक संगठन के भीतर यह स्पष्ट नहीं होगा कि काम के आधार पर मूल्यांकन होगा, न कि निकटता के आधार पर, तब तक झारखण्ड में पार्टी की पकड़ मजबूत नहीं हो सकती।

यह भी एक तथ्य है कि भाजपा के पास आज केंद्र में सत्ता है, संसाधन हैं और एक मजबूत राष्ट्रीय नेतृत्व है। विश्वसनीयता की भी कोई कमी नहीं है। ऐसे में झारखण्ड जैसे राज्य में बार-बार असफलता यह संकेत देती है कि कहीं न कहीं स्थानीय स्तर पर गंभीर चूक हो रही है। यदि इन चूकों की निष्पक्ष जांच होती है, तो कई ऐसे नाम और ढांचे सामने आएंगे जो संगठन के लिए बोझ बन चुके हैं, लेकिन अब तक ‘अनिवार्य’ समझे जाते रहे हैं।

भाजपा का मूल मंत्र “देश प्रथम, पार्टी प्रथम” रहा है। यह मंत्र केवल भाषणों तक सीमित नहीं होना चाहिए। यदि पार्टी प्रथम है, तो व्यक्ति द्वितीयक होंगे। यदि देश और प्रदेश का हित सर्वोपरि है, तो स्थानीय नेतृत्वदल को आपादमस्तक बदलने का साहस भी दिखाना होगा। झारखण्ड में यह साहस अब अपरिहार्य हो चुका है।

नितिन नबीन के सामने चुनौती आसान नहीं है। उन्हें न केवल संगठन को पुनर्संतुलित करना होगा, बल्कि वर्षों से जमे असंतोष, गुटबाजी और अविश्वास को भी तोड़ना होगा। यह काम केवल निर्देशों से नहीं होगा, बल्कि निष्पक्षता, संवाद और कठोर फैसलों के माध्यम से ही संभव है। यदि वे वास्तव में “भाजपा मजबूत तो कार्यकर्ता मजबूत” के सिद्धांत पर चलते हैं, तो झारखण्ड में भाजपा की राजनीतिक दिशा बदल सकती है।

अंततः झारखण्ड की राजनीति किसी एक नेता या एक चुनाव तक सीमित नहीं है। यह राज्य लंबे समय से स्थिर, ईमानदार और विकासोन्मुख राजनीति की तलाश में है। यदि भाजपा इस अवसर को गंवाती है, तो यह केवल एक और संगठनात्मक विफलता होगी। लेकिन यदि वह आत्ममंथन कर, अहंकार त्याग करने हेतु स्थानीय नेताओं और विचारकों को प्रविर्त कर सके और समर्पित कार्यकर्ताओं को केंद्र में रखकर आगे बढ़ती है, तो झारखण्ड में उसकी पकड़ न केवल मजबूत होगी, बल्कि स्थायी भी। यही राष्ट्रहित में होगा, यही पार्टी हित में होगा।

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