आज की कांग्रेस को देश के सामने अपना वास्तविक एजेंडा स्पष्ट करना होगा

– पूर्णेन्दु पुष्पेश ….

कांग्रेस कभी भारत की आज़ादी की लड़ाई का केंद्रीय स्तंभ रही थी। उस दौर में मतभेद थे, रणनीतिक गलतियाँ भी थीं, लेकिन एक साझा ध्येय स्पष्ट था -‘राष्ट्र सर्वोपरि’। स्वतंत्रता संग्राम की वह कांग्रेस आज किस वैचारिक दिशा में खड़ी है, यह सवाल अब केवल राजनीतिक आरोप भर नहीं रह गया है। उसके वैश्विक गठजोड़, विदेश यात्राएँ और विदेशी मंचों से दिए गए बयान इस शंका को जन्म देते हैं कि क्या पार्टी की प्राथमिकता अब भी राष्ट्र है या कुछ और।

सैम पित्रोदा के हालिया वक्तव्य ने उसी शंका को ठोस आधार देते हुए अनजाने में कांग्रेस के बदले हुए चेहरे को उजागर कर दिया है। सैम पित्रोदा द्वारा यह स्वीकार किया जाना कि कांग्रेस ‘ग्लोबल प्रोग्रेसिव एलायंस’ का हिस्सा है और उसी के सिलसिले में राहुल गांधी जर्मनी गए थे, कई सवाल खड़े करता है। पहला सवाल यह कि यह गठबंधन किन मूल्यों पर खड़ा है और किन वैश्विक शक्तियों से जुड़ा हुआ है। आरोप यह है कि इस अलायंस से जुड़े कई संगठन ऐसे हैं, जो भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक पहचान पर लगातार सवाल उठाते रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय संवाद और कूटनीतिक सहभागिता राजनीति का हिस्सा हो सकती है, लेकिन जब वही संवाद भारत-विरोधी विमर्श को ताकत दे, तब उसे सामान्य राजनीतिक गतिविधि नहीं कहा जा सकता।

राहुल गांधी की विदेश यात्राओं का एक पैटर्न भी देश के युवाओं को समझना होगा। वे जब भी विदेश जाते हैं, भारत की छवि पर चिंता जताने के नाम पर ऐसी टिप्पणियाँ करते हैं, जो देश के भीतर विपक्षी राजनीति का हिस्सा हो सकती हैं, लेकिन विदेशों में वही बातें भारत-विरोधी नैरेटिव का औजार बन जाती हैं। लोकतंत्र में असहमति आवश्यक है, आलोचना भी आवश्यक है, लेकिन राष्ट्रवाद का तकाज़ा यह है कि असहमति राष्ट्रहित की सीमा में रहे। विदेशी मंचों पर अपने ही देश की संस्थाओं को कठघरे में खड़ा करना किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित में नहीं कहा जा सकता।

जर्मनी यात्रा के दौरान सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी से मुलाकात और उससे जुड़े संदर्भ इस पूरे विवाद को और गंभीर बनाते हैं। यह आरोप सामने आया है कि यह विश्वविद्यालय जॉर्ज सोरोस की ओपन सोसाइटी फाउंडेशन से आर्थिक सहायता प्राप्त करता है। एक ऐसा नाम, जिस पर दुनिया के कई देशों में राजनीतिक हस्तक्षेप और अस्थिरता फैलाने के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में सैम पित्रोदा का यह कहना कि उन्हें इससे “कोई फर्क नहीं पड़ता”, केवल लापरवाही नहीं, बल्कि राष्ट्र के प्रति असंवेदनशीलता का संकेत देता है। सवाल यह नहीं कि कौन किससे मिलता है, असली सवाल यह है कि क्या ऐसे वैश्विक नेटवर्कों से जुड़ाव भारत के संवैधानिक हितों और राष्ट्रीय संप्रभुता के अनुरूप है।

कांग्रेस का इतिहास यह भी बताता है कि स्वतंत्रता के बाद के दशकों में उसकी नीतियाँ लगातार केंद्रीकरण और परिवार-केंद्रित राजनीति की ओर बढ़ती गईं। आपातकाल ने लोकतंत्र को गहरी चोट पहुँचाई, संस्थाओं को कमजोर किया गया, और सत्ता को परिवार के इर्द-गिर्द सीमित कर दिया गया। इसी क्रम में माता–पुत्र द्वारा चीन में किए गए एक एग्रीमेंट की चर्चा भी बार-बार उठती रही है, जिसकी शर्तें आज तक देश के सामने स्पष्ट नहीं हैं। जब ऐसे पुराने अनुभवों को वर्तमान के वैश्विक गठजोड़ों से जोड़ा जाता है, तो संदेह और गहरा हो जाता है कि कहीं कांग्रेस की राजनीति राष्ट्रकेंद्रित से नेटवर्क-केंद्रित या देशद्रोही तो नहीं हो गई है।

आज के भारतीय युवाओं के लिए यह समझना बेहद आवश्यक है कि राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं होती, बल्कि वह देश की दिशा तय करती है। अगर किसी राजनीतिक धारा की नीतियाँ और बयान भारत की आंतरिक मजबूती को कमजोर करने वाले वैश्विक विमर्श को ताकत दें, तो उसका सीधा असर देश के भविष्य पर पड़ता है। आज का युवा भारत आकांक्षाओं से भरा है। विकास, सुरक्षा और आत्मसम्मान चाहता है। ऐसी स्थिति में यदि कोई राजनीतिक नेतृत्व देश के भीतर की बहसों को विदेशी मंचों पर ले जाकर भारत-विरोधी ताकतों के नैरेटिव को पुष्ट करे, तो यह भविष्य के लिए घातक हो सकता है।

यहाँ मेरा अभिप्राय किसी व्यक्ति या पार्टी को दोषी ठहराना नहीं है, बल्कि एक विश्लेषणात्मक चेतावनी है। कांग्रेस यदि आज भी स्वयं को उस देशभक्त परंपरा का उत्तराधिकारी मानती है, जिसने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी, तो उसे अपने वैश्विक गठजोड़ों की सीमाएँ स्पष्ट करनी होंगी। उसे यह बताना होगा कि उसकी विदेश यात्राओं का उद्देश्य क्या है और क्या वह भारत की संस्थाओं पर विदेशी मंचों से टिप्पणी करने की राजनीति से पीछे हटेगी। राष्ट्रवाद सत्ता का समर्थन नहीं, बल्कि राष्ट्र का सम्मान है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि देश का युवा सचेत रहे, सवाल पूछे और भावनाओं के बजाय तथ्यों के आधार पर राजनीतिक धाराओं को परखे। भारत की लोकतांत्रिक शक्ति उसकी आंतरिक बहसों, मजबूत संस्थाओं और जागरूक नागरिकों में है, न कि विदेशी मंचों पर अपने ही देश के खिलाफ खड़े किए गए सवालों में। कांग्रेस को तय करना होगा कि वह केवल इतिहास की विरासत बनकर रहना चाहती है या राष्ट्र के साथ खड़े होकर भविष्य गढ़ना। और युवाओं को तय करना होगा कि वे किस दिशा में देश को ले जाना चाहते हैं. …..राष्ट्र सर्वोपरि की ओर या वैश्विक नेटवर्कों की परछाइयों की ओर?

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