भारत की आज़ादी में झारखंड क्षेत्र का योगदान : क्रांति की धरती से स्वाधीनता की राह तक

जब हम भारत की स्वतंत्रता की गाथा को पढ़ते हैं, तो हमारे सामने दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, और लाहौर जैसे बड़े शहरों की तस्वीरें उभरती हैं। परंतु, भारत की आज़ादी का इतिहास इन महानगरों तक सीमित नहीं था। जंगल, पहाड़, खेत और खदानों में बसे छोटे-छोटे गांवों से भी भारत माता के सपूतों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ मोर्चा खोला। झारखंड, जो आज भले ही एक पृथक राज्य के रूप में जाना जाता है, स्वतंत्रता संग्राम में अपने वीरों और जनआंदोलनों के लिए सदैव अग्रणी रहा है। यहां के आदिवासी और कृषक समाजों ने जिस शौर्य, बलिदान और जनचेतना का परिचय दिया, वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को व्यापक जनाधार और सांस्कृतिक गहराई प्रदान करता है।

1. सन 1855 : संथाल विद्रोह — “हूल क्रांति” की गूंज

1857 के सिपाही विद्रोह से पहले ही झारखंड के संथाल आदिवासियों ने अंग्रेजों के जमींदारी, महाजनी और पुलिस प्रशासन के अत्याचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर दी थी। 1855 में सिद्धू-कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में भागलपुर, साहिबगंज, दुमका, पाकुड़, गोड्डा, जामताड़ा और देवघर क्षेत्रों में संथालों ने “हूल क्रांति” का उद्घोष किया।

मुख्य कारण:

  • महाजनों और साहूकारों द्वारा ज़मींदारी के माध्यम से भूमि हड़पना

  • आदिवासियों को बेदखल कर देना

  • ब्रिटिश प्रशासन की पुलिसिया बर्बरता और न्यायिक अन्याय

परिणाम:
लगभग 50,000 संथाल विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया। अंततः अंग्रेजों ने हथियारों के बल पर आंदोलन को कुचल दिया और सिद्धू-कान्हू को धोखे से पकड़कर फांसी दे दी गई। किंतु, यह झारखंड की धरती से पहली संगठित क्रांति थी, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रेरक उदाहरणों में गिनी जाती है।

2. सन 1857 : चांद-बिंदा विद्रोह – हजारीबाग के वीरों की बलिदानगाथा

1857 की क्रांति झारखंड में हजारीबाग के विद्रोह के रूप में उभरी। चांद और बिंदा नामक दो वीर आदिवासी नेता (कोल जनजाति से) ने रांची-हजारीबाग क्षेत्र में अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाए।

मुख्य घटनाएं:

  • हजारीबाग जेल तोड़कर सैकड़ों बंदियों को मुक्त कराया

  • अंग्रेज़ी सेना पर धावा बोलकर हथियार लूटे

  • खूँटी, तमाड़, बुंडू आदि क्षेत्रों में संघर्ष की अग्नि फैलाई

नायक:

  • ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडेय गणपत राय जैसे जमींदारों ने भी इस आंदोलन में भाग लिया

  • बिरसा मुंडा के पूर्वजों ने आदिवासी समुदाय को संगठित किया

न्याय के नाम पर हत्या:
ब्रिटिश अधिकारियों ने विद्रोहियों को क्रूरता से कुचल दिया, सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई और गांव के गांव जला दिए गए। फिर भी इस संघर्ष ने झारखंड के जनमानस में स्वतंत्रता की भावना को स्थायी रूप से बसा दिया।

3. बिरसा मुंडा आंदोलन (1895–1900) — ‘धरती आबा’ की पुकार

झारखंड के स्वतंत्रता संग्राम में बिरसा मुंडा का योगदान असीम और अद्वितीय है। उन्हें “धरती आबा” अर्थात “धरती का पिता” कहा गया।

प्रसंग:

  • बिरसा ने रांची, खूँटी, लोहरदगा, चाईबासा क्षेत्रों में आदिवासी पुनर्जागरण का नेतृत्व किया।

  • ईसाई मिशनरियों, महाजनों और अंग्रेज़ प्रशासन द्वारा जनजातियों की संस्कृति, धर्म और भूमि के शोषण के विरुद्ध वे खड़े हुए।

  • 1899 में उन्होंने “उलगुलान” (महाविद्रोह) का आह्वान किया।

परिणाम:
बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी हुई और 9 जून 1900 को जेल में संदिग्ध परिस्थिति में मृत्यु हो गई। वे मात्र 25 वर्ष के थे। परंतु, बिरसा का आंदोलन एक सांस्कृतिक और राजनीतिक क्रांति था जिसने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिला दीं।

4. तेलंगा खड़िया आंदोलन – जमींदारी के विरुद्ध आदिवासी प्रतिकार

सिंहभूम क्षेत्र के एक अन्य महान नेता थे तेलंगा खड़िया। इन्होंने जमींदारी प्रथा और अंग्रेजों की कर व्यवस्था के खिलाफ जनांदोलन खड़ा किया।

विशेषताएं:

  • उन्होंने आदिवासियों को संगठित कर सांस्कृतिक जागरण का नेतृत्व किया।

  • कर नहीं देने की नीति अपनाई गई और सामूहिक सत्याग्रह किया गया।

  • खड़िया ने शिक्षा, भाषा और जनजागरण को भी प्राथमिकता दी।

उनका संघर्ष पूर्णतः अहिंसक था, पर अंग्रेजों ने उन्हें बर्बरता से कुचलने की कोशिश की। किंतु आज भी तेलंगा खड़िया को झारखंड की जनगाथाओं में एक सच्चे जननायक के रूप में याद किया जाता है।

5. झारखंड पार्टी और जयपाल सिंह मुंडा का जन आंदोलन (1939–1950)

भले ही यह आंदोलन आज़ादी के पूर्व व बाद में झारखंड पृथक राज्य की मांग के रूप में केंद्रित था, लेकिन इसने स्वतंत्रता आंदोलन में भी अपनी भूमिका निभाई।

जयपाल सिंह मुंडा:

  • ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़े, भारतीय हॉकी टीम के पहले कप्तान

  • आदिवासियों के अधिकार, भूमि और संस्कृति के लिए संसद में ऐतिहासिक भाषण दिए

  • झारखंड पार्टी का गठन किया जिसने आज़ादी के बाद 32 विधायक जीतकर दिल्ली में अपनी उपस्थिति दर्ज की

उनका योगदान राजनीतिक चेतना लाने और आदिवासी अधिकारों को राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनाने में महत्त्वपूर्ण रहा।

6. स्वदेशी आंदोलन और छात्र आंदोलनों में झारखंड की भूमिका

चाईबासा, रांची, हजारीबाग, गिरिडीह, देवघर जैसे क्षेत्रों में छात्रों, शिक्षकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर स्वदेशी आंदोलन को बल दिया।

विशेष योगदान:

  • रांची कॉलेज, संत जेवियर्स स्कूल, वास्को महाविद्यालय में आंदोलन हुए

  • “भारत छोड़ो आंदोलन” में साहिबगंज, बोकारो, और रामगढ़ क्षेत्र में रेल पटरियों को उखाड़ा गया

  • समाचार पत्रों के माध्यम से क्रांतिकारी विचारों का प्रसार किया गया

7. रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन 1940 – झारखंड की ऐतिहासिक भूमिका

रामगढ़ (अब झारखंड में) में 1940 में कांग्रेस का ऐतिहासिक अधिवेशन हुआ था, जिसमें महात्मा गांधी, नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, आचार्य नरेंद्रदेव, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि शामिल हुए।

महत्त्व:

  • यह वही अधिवेशन था जिसमें गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का आह्वान तैयार किया

  • रामगढ़ अधिवेशन ने झारखंड को राष्ट्रीय आंदोलन का केंद्र बना दिया

  • इस अधिवेशन की स्मृति आज भी झारखंड के स्वतंत्रता इतिहास की पहचान है

8. अज्ञात बलिदानी : ग्राम स्तरीय आंदोलन और लोकनायक

झारखंड के गांव-गांव में ऐसे दर्जनों अज्ञात सेनानी थे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाया। कुछ प्रमुख नाम:

  • गंगाराम कालिंदी (पलामू)

  • बुद्धू भगत (लोहरदगा)

  • फूलो-झानो (साहिबगंज) — जिन्होंने ब्रिटिश सिपाहियों से लोहा लिया

इन आंदोलनों में महिलाओं, बुजुर्गों और युवाओं की भागीदारी उल्लेखनीय रही।

9. पलामू किसान आंदोलन – महाजनी प्रथा के विरुद्ध संघर्ष

1930–1940 के दशक में पलामू जिले में किसानों ने महाजनों के खिलाफ जमकर आंदोलन किया। टैक्स न देने की नीति और जमींदारों का बहिष्कार किया गया। इस आंदोलन में कई किसान नेता जेल गए, लेकिन उनके प्रयास से भूमि-सुधारों की नींव पड़ी।

10. झारखंड के क्रांतिकारी अखबार और साहित्य का योगदान

  • झारखंड समाचार”, “हूल बुलेटिन” जैसे लघु पत्रों ने जन-जागरण किया

  • लोक गीतों और मुंडारी/संथाली भाषा की कविताओं में स्वतंत्रता की भावनाएं गुंजायमान हुईं

  • महिला लेखिकाओं और सांस्कृतिक कर्मियों ने काव्य, गीत और नाटक के माध्यम से संदेश फैलाया


भारत की स्वतंत्रता की जब भी गाथा कही जाएगी, झारखंड के जंगलों से उठे विद्रोह, मैदानों में गूंजे स्वदेशी नारे और गांव-गांव में बलिदान देने वालों की गाथा उसमें अनिवार्य रूप से समाहित रहेगी। बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हू, जयपाल सिंह जैसे नाम ही नहीं, हजारों अज्ञात नायकों की शौर्यगाथा स्वतंत्रता का असली अर्थ है। झारखंड ने न केवल भारत को वीर सपूत दिए, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन को जन, जल, जंगल और ज़मीन से जुड़ी संवेदनाओं की गहराई भी दी।


भारत माता की जय।
झारखंड की क्रांति को नमन।

(लेख: पूर्णेंदु सिन्हा ‘पुष्पेश’)

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