बदलाव लाती बेटियां

ब्लर्ब

बाल विवाह के खिलाफ जारी एक-एक गांव और एक-एक घर पहुंचने के अभियान के नतीजे जमीन पर दिख रहे हैं। लड़कियां आज खुद अपना बाल विवाह रुकवाने के लिए आगे आ रही हैं और गैर सरकारी संगठनों एवं प्रशासन को सूचित कर रही हैं। कुछ वर्षों पहले यह अकल्पनीय था। लेकिन आज यह एक बदलाव को रेखांकित करता है कि इस लड़ाई में हम कहां तक पहुंचे हैं।

गौरव के पल हैं। देश आज आजादी का अमृत काल मना रहा है। पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि इस यात्रा में हमने क्या बहुत कुछ ऐसा पाया जिससे सीना चौड़ा हो जाए। लेकिन अगर हम भारत को विकसित देशों की कतार में देखना चाहते हैं तो जरूरी है कि हम इन उपलब्धियों पर खुश होने के बजाय हम अपना ध्यान सामने खड़ी चुनौतियों और उनसे पार पाने पर रखें। हमने जातिवाद और छुआछूत जैसी तमाम बुराइयों पर काफी हद तक पार पाया है लेकिन कुछ सामाजिक बुराइयां अभी भी मौजूद हैं। उनमें से एक है बाल विवाह। इस मोर्चे पर भी हमारा प्रदर्शन पिछले एक दशक में शानदार रहा है। आंकड़े बताते हैं कि कोरोना जैसी महामारी के बावजूद पिछले एक दशक में देश ने बाल विवाह मुक्त भारत के सपने की दिशा में लंबी छलांग लगाई है। यूनीसेफ की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में भारत में बाल विवाह की दर 47 फीसद से घटकर 27 फीसद पर आ चुकी है।

इसके पीछे बाल विवाह मुक्त भारत के लक्ष्य को  2030 तक हासिल करने के लिए सरकार और गैरसरकारी एजेंसियों के समन्वित प्रयास हैं । नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की अगुआई में बाल विवाह मुक्त भारत अभियान आज देश का ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा अभियान बन गया है। सत्यार्थी की अगुआई में पिछले साल 16 अक्तूबर को बाल विवाह के खिलाफ दुनिया के सबसे बड़े जागरूकता अभियान की शुरुआत की गई।  इस दौरान देश के 26 राज्यों के 500 जिलों के दस हजार गांवों की 70,000 से भी अधिक महिलाओं और बच्चों की अगुआई में जागरूकता अभियान चलाया गया। इस अभियान से दो करोड़ से भी ज्यादा लोग न सिर्फ जुड़े बल्कि बाल विवाह के खिलाफ शपथ भी ली। सरकारी अमला भी पीछे नहीं रहा। चौदह राज्य सरकारों के महिला एवं बाल कल्याण विभाग, राज्य बाल संरक्षण आयोग, राज्य विधिक सेवा आयोग और रेलवे सुरक्षा पुलिस ने भी इस अभियान को समर्थन दिया। यह अभियान अभी भी जारी है और उम्मीद है कि इस वर्ष साढ़े सात करोड़ लोग बाल विवाह के खिलाफ शपथ लेंगे।

बाल विवाह के खिलाफ एक-एक गांव और एक-एक घर पहुंचने के इस अभियान के नतीजे जमीन पर दिख रहे हैं। लड़कियां आज खुद अपना बाल विवाह रुकवाने के लिए आगे आ रही हैं और गैर सरकारी संगठनों एवं प्रशासन को सूचित कर रही हैं। कुछ कहानियां हैरान कर सकती हैं।  झारखंड के गिरिडीह जिले की सुधा (बदला हुआ नाम) 15 वर्ष की उम्र में दो बार अपना बाल विवाह रुकवा चुकी है। अभ्रक की खदानों में 50 रुपए रोज की दिहाड़ी पर काम करने वाली सुधा के मां-बाप ने सितंबर 2022 में उसकी शादी तय कर दी। सुधा ने एक गैर सरकारी संगठन से संपर्क साधा जिसने उसके मां-बाप से मुलाकात कर शादी रुकवाई। लेकिन चंद महीनों बाद पिता ने फिर उसकी शादी तय कर दी। इस बार सुधा ने प्रखंड विकास अधिकारी (बीडीओ) से शिकायत की तक उसकी शादी रुकी। दूसरी घटना में बिहार के पूर्णिया जिले के मरंगा थाने के एक गांव में तेरह वर्ष की एक बच्ची का विवाह रुकवाने के लिए पूरा गांव एकजुट हो गया। यह गांव उन गांवों में शामिल है जहां पिछले साल सत्यार्थी ने “बाल विवाह मुक्त भारत अभियान” चलाया था। ऐसी हजारों कहानियां हैं। कुछ वर्षों पहले यह अकल्पनीय था लेकिन आज यह एक बदलाव को रेखांकित करता है कि इस लड़ाई में हम कहां तक पहुंचे हैं।

लेकिन स्याह पहलुओं से आंख नहीं मूंदी जा सकती। यूनीसेफ की रिपोर्ट यह भी बताती है कि दुनिया के एक तिहाई बाल विवाह भारत में ही होते हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश में 15 से 19 साल के आयु वर्ग की 16 फीसद लड़कियों का विवाह हो चुका है। इससे साफ है कि देश में बाल विवाह की समस्या अभी भी गंभीर है। महानगरों में यह समस्या उतनी नहीं दिखती लेकिन सुदूर ग्रामीण इलाकों में बाल विवाह अब भी आम है।

कह सकते हैं कि बाल विवाह अब अमूमन वहीं होते हैं जहां परिवार बड़ा है और गरीबी के कारण रोटी बहुत छोटी है। स्वाभाविक है कि इन घरों में लड़कियों को बोझ की तरह देखा जाता है और माना जाता है कि इनकी शादी कर देने से एक खाने वाला कम होगा और यही बड़ी राहत होगी। जाहिर है कि जब स्थिति ऐसी हो तो बाल विवाह पर रोक लगाना अपने आप में एक चुनौती बन जाता है। फिर भी कुछ उपायों से काफी हद तक समस्या पर अंकुश लग सकता है। इन परिवारों की आर्थिक मदद पहली शर्त है। अगर मनरेगा सहित केंद्र व राज्य सरकारों की लोक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उन तक पहुंचने लगे तो बाल विवाह के मामले काफी कम हो सकते हैं। लेकिन कमजोर सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण ये परिवार जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है, सरकारी योजनाओं का लाभ लेने में पीछे रह जाते हैं।

दूसरी समस्या अशिक्षा और सामाजिक परिवेश की है। गरीबी और असुरक्षा के शिकार इन परिवारों में माना जाता है कि लड़कियां पराई हैं। बेहतर है कि किसी ऊंच-नीच से बचने के लिए उनकी पहले ही शादी कर दी जाए। बाल विवाह से लड़की के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले खतरों से ये बेखबर हैं। अगर इनके बच्चों को शिक्षित कर दिया जाए तो इनके घरों से भी सुधा जैसी लड़कियां निकलेंगी। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत खास तौर से इन वंचित परिवारों की लड़कियों का स्कूल में दाखिला कराना होगा। यह होने पर ही “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” अभियान की सार्थकता मानी जाएगी। आज यह यह मुश्किल काम नहीं है और मिड डे मील और मुफ्त ड्रेस एवं किताबों जैसी योजनाओं के कारण लड़कियों को स्कूल भेजने में इन गरीब माता-पिता को भी कोई परेशानी नहीं होगी क्योंकि इससे उन पर कोई आर्थिक बोझ नहीं पड़ने वाला।

बाल विवाह मुक्त भारत बनाने के सपने को पूरा करने में जनजागरूकता तीसरा अहम आयाम है। देश में हजारों साल से चल रही पितृसत्ता की जड़ें गहरी हैं। अब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है  जिनका मानना है कि लड़कियां चूल्हा-चौके के लिए ही बनी हैं, पढ़-लिख कर क्या करेंगी। शादी ब्याह के मामलों में बेटी की राय लेने में भी हेठी समझी जाती है। बहुत से समुदायों में बेटी के बड़ी हो जाने के बाद उसे घर में रखना अच्छा नहीं माना जाता। गांव के बड़े-बुजुर्गों और रिश्तेदारों का दबाव रहता है। ऐसे में कुछ माता-पिता को न चाहते हुए भी बेटी की कम उम्र में शादी करनी पड़ती है। ऐसे में पहली जरूरत यह है कि इन्हें बाल विवाह का लड़की के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावों की जानकारी दी जाए। ऐसे माता-पिता आम तौर पर यह भी नहीं जानते कि बाल विवाह कानूनन अपराध है और इसमें किसी भी रूप में शामिल किसी भी व्यक्ति पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। उन तक यह बात पहुंचानी होगी और इसके लिए सरकार के पास पूरा तंत्र है। आंगनबाड़ी से लेकर आशा कार्यकर्ताएं और तमाम गैरसरकारी संगठन लोगों को जागरूक करने की दिशा में अपना काम कर रहे हैं। और उनके प्रयासों के नतीजे दिख भी रहे हैं।

यह भी मानना होगा कि गांव-गांव में आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की मौजूदगी के बावजूद कई बार अभी भी बाल विवाह की पूर्व सूचना नहीं मिल पाती। झारखंड और बिहार में बाल विवाह से जुड़ी खबरों और गैर सरकारी संगठनों की रपटों से यह स्पष्ट है कि ऐसे मामलों में पूर्व सूचना की कितनी अहमियत है। लगभग हमेशा ऐसा देखा गया कि जहां सूचना पहले मिल गई थी, वहां बात करने पर ज्यादातर माता-पिता बच्ची का विवाह रोकने पर मान गए। समस्या तब होती है जब आखिरी क्षणों में पता चलता है। विवाह की तैयारियों में पहले ही कर्जदार हो चुके लड़की के परिजन यह आर्थिक धक्का बर्दाश्त नहीं कर पाते और उग्र हो जाते हैं।

अगर हमने बाल विवाह के खिलाफ आर्थिक, शैक्षणिक और जनजागरूकता जैसे तीनों मोर्चों पर लड़ाई इसी शिद्दत से जारी रखी तो कोई वजह नहीं दिखती कि 2030 तक बाल विवाह मुक्त भारत के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सके। यह लड़ाई लंबी चली है और अभी आगे भी जारी रहेगी। पिछले एक दशक में मिली उपलब्धियों के लिए अपनी पीठ थपथपा सकते हैं लेकिन आत्मसंतुष्ट होकर बैठ नहीं सकते। सफर अभी बाकी है।

Writter : Shanti Kindo,

Ex Chairperson, Jharkhand State Child Labour Commission – Cum – Director, PRERNA, Jharkhand

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