झारखंड के सरकारी अस्पतालों से क्यों कतराते हैं युवा डॉक्टर?

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘ 

झारखंड जैसे राज्य के लिए यह विडंबना ही कही जाएगी कि जहां एक ओर ग्रामीण और आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की सबसे ज्यादा जरूरत है, वहीं दूसरी ओर राज्य में डॉक्टरों की भारी कमी है। सरकारी सेवा में नियुक्त डॉक्टरों की संख्या पहले से सृजित पदों के मुकाबले बहुत कम है, और विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों के मुताबिक जो 37,500 डॉक्टर होने चाहिए, उसकी जगह महज 7,000 के आसपास डॉक्टर ही मौजूद हैं। इनमें से भी कई प्रशासनिक जिम्मेदारियों में व्यस्त हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर स्वास्थ्य सेवा की रीढ़ समझे जाने वाले युवा डॉक्टर झारखंड की सरकारी नौकरी से किनारा क्यों कर रहे हैं?

राज्य सरकार ने समय-समय पर स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की नीयत से डॉक्टरों की बहाली के लिए कई प्रयास किए। लेकिन परिणाम नाकाफी ही रहे। उदाहरण के तौर पर 2022 में झारखंड लोक सेवा आयोग (जेपीएससी) ने 1228 पदों पर नियुक्ति निकाली थी, मगर सिर्फ 323 पदों पर ही नियुक्ति हो सकी। और इनमें से भी कुछ डॉक्टरों ने सेवा जॉइन करने के बाद छोड़ दी। मेडिकल अफसर के 232 पदों के लिए जब विज्ञापन निकाला गया, तो 1460 आवेदन आए, जिनमें से सिर्फ 60 प्रतिशत अभ्यर्थी ही इंटरव्यू में पहुंचे। यह स्थिति केवल संख्यात्मक नहीं है, यह एक गंभीर मानसिकता और व्यवस्था के प्रति अविश्वास को भी दर्शाती है।

जब बाकी क्षेत्रों में सरकारी नौकरी के लिए लाखों युवा पंक्तिबद्ध हैं, तो डॉक्टर इस राह से क्यों मुंह मोड़ रहे हैं? इसका जवाब ढूंढना ज्यादा कठिन नहीं है। युवा डॉक्टरों को लगता है कि सरकारी नौकरी में उनका पेशेवर विकास रुक जाएगा। विभागीय हस्तक्षेप, लगातार ट्रांसफर की अनिश्चितता, और अस्पतालों में संसाधनों की कमी उनके आत्मविश्वास को डगमगा देती है। झारखंड में अधिकांश पीएचसी, सीएचसी और यहां तक कि सदर अस्पतालों में भी अधुनातन चिकित्सा उपकरण और आवश्यक सुविधाओं का अभाव है। ऐसे में कोई सुपर स्पेशलिस्ट डॉक्टर क्यों अपना करियर एक उपस्वास्थ्य केंद्र में ‘खपा’ देना चाहेगा?

वेतनमान भी इस समस्या की एक बड़ी जड़ है। झारखंड में जहां सुपर स्पेशलिस्ट डॉक्टर को शुरुआती वेतन 63 हजार रुपये और तीन साल में तीन इंक्रीमेंट मिलते हैं, वहीं पड़ोसी राज्यों में यही वेतन 1.25 लाख से अधिक होता है। आर्थिक असमानता के इस दौर में कोई भी प्रतिभावान युवा डॉक्टर सरकारी सेवा में क्यों टिकेगा, जब प्राइवेट सेक्टर या दूसरे राज्य उसे बेहतर अवसर और जीवनशैली दे रहे हैं?

असुरक्षा का भाव भी कम बड़ी बाधा नहीं है। झारखंड में डॉक्टरों पर हमले, ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाओं की कमी, बेहतर स्कूल और आवास के अभाव ने इस पेशे को ग्रामीण सेवा के लिए ‘अप्रिय’ बना दिया है। एक युवा डॉक्टर के लिए केवल सेवा भाव ही पर्याप्त नहीं, उसे अपने करियर, सुरक्षा और पारिवारिक जीवन का भी ख्याल रखना होता है।

अगर सरकार वाकई इस संकट को दूर करना चाहती है, तो उसे डॉक्टरों के लिए एक समग्र और दीर्घकालिक नीति बनानी होगी। इसमें न केवल वेतनमान को बाजार के अनुरूप करना होगा, बल्कि स्थानांतरण नीति, सेवा स्थायित्व, कार्यस्थल पर सुरक्षा, और चिकित्सा संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। साथ ही, ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा देने वाले डॉक्टरों को विशेष भत्ते, प्रोन्नति की प्राथमिकता और अतिरिक्त छुट्टियों जैसी सुविधाएं दी जा सकती हैं।

स्वास्थ्य मंत्री की यह बात सही है कि अगर नीति में बदलाव होगा, तो युवा डॉक्टर स्वतः ही सरकारी सेवा की ओर आकर्षित होंगे। मगर यह बदलाव केवल कागज़ों में नहीं, ज़मीन पर उतरना चाहिए। झारखंड जैसे राज्य की सेहत दांव पर है — और इसका इलाज डॉक्टरों की भागीदारी के बिना संभव नहीं। राज्य को अगर अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था को गंभीरता से सशक्त करना है, तो उसे युवा डॉक्टरों की उम्मीदों और हताशा दोनों को समझकर नए सिरे से सोचना होगा। वरना सरकारी अस्पतालों की इमारतें खड़ी तो रहेंगी, पर उनमें सेवा देने वाला कोई नहीं होगा।

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