– Purnendu Pusshpesh
भारत आज जिस दौर से गुजर रहा है, वह सिर्फ सड़क, पुल, तकनीक और जीडीपी का दौर नहीं है। यह दौर सोच बदलने का है। यह बदलाव इस बात का है कि हम खुद को कैसे देखते हैं, अपनी संस्कृति को कैसे समझते हैं और अपने देश पर कितना भरोसा करते हैं। अब विकसित भारत की बात केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि समाज की स्मृति, आस्था और आत्मविश्वास तक पहुंच गई है।
पिछले कई दशकों तक एक तयशुदा सोच हावी रही। राष्ट्रीयता, परंपरा और आस्था को पिछड़ा या संकीर्ण बताने का चलन था। कुछ लोग तय करते थे कि आधुनिक क्या है और पुराना क्या। गांव, देहात, लोकभाव और देशभक्ति को अक्सर हेय दृष्टि से देखा गया। लेकिन अब यह तस्वीर बदल रही है। वही लोकभाव, वही सांस्कृतिक पहचान आज नए आत्मविश्वास के साथ सामने आ रही है।
इस बदलाव को सबसे साफ तरीके से सिनेमा और लोकप्रिय संस्कृति में देखा जा सकता है। साल 2001 में जब गदर आई थी, तब जनता ने उसे सिर आंखों पर बैठाया, लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने नाक-भौं सिकोड़ी। कहा गया कि यह फिल्म ज्यादा देसी है, ज्यादा भावुक है, ज्यादा राष्ट्रवादी है। लेकिन जनता ने साफ कर दिया कि उसकी पसंद किसी सर्टिफिकेट की मोहताज नहीं है। वही कहानी आज धुरंधर जैसी फिल्मों के साथ दोहराई जा रही है।
यह सिर्फ फिल्मों की सफलता की बात नहीं है। यह इस बात का संकेत है कि समाज अब अपनी भावनाओं के लिए किसी की अनुमति नहीं चाहता। लोग अपने नायकों को खुद चुन रहे हैं, अपनी कहानियों को खुद आगे बढ़ा रहे हैं। यही कारण है कि जमीनी लोकप्रियता अब रिव्यू और विश्लेषण से ज्यादा असरदार हो गई है।
इस बदलाव से एक खास किस्म का सिस्टम असहज भी हो रहा है। क्योंकि अब राष्ट्रीयता को लेकर अपराधबोध नहीं है। आस्था को लेकर संकोच नहीं है। लोग खुलकर कह रहे हैं कि देश से प्यार करना, अपनी संस्कृति पर गर्व करना कोई गुनाह नहीं है। आध्यात्मिकता को पिछड़ेपन का तमगा देने वाली सोच कमजोर पड़ रही है और उसकी जगह संवाद और शोध ले रहे हैं।
यही असल में विकसित भारत की पहचान है। विकास तब अधूरा होता है, जब समाज अपनी जड़ों से कट जाता है। आज भारत फिर से अपनी जड़ों को स्वीकार कर रहा है। लोग यह समझने लगे हैं कि हमारी संस्कृति किसी वैश्विक बाजार या बौद्धिक वर्ग की मंजूरी पर निर्भर नहीं है।
Make in India, Digital India और आत्मनिर्भर भारत जैसी पहलें इसी सोच का विस्तार हैं। ये सिर्फ सरकारी योजनाएं नहीं हैं, बल्कि आत्मविश्वास की घोषणाएं हैं। स्वदेशी अब केवल सामान तक सीमित नहीं है, बल्कि विचारों और प्रतीकों तक फैल चुका है। गदर और धुरंधर जैसे जन-आख्यान उसी दबे हुए लोकभाव की आवाज हैं, जिसे अब वैधता मिल रही है।
इसी क्रम में ‘जी राम जी’ जैसी सांस्कृतिक पहलें समाज को जोड़ने का काम कर सकती हैं। यहां राम किसी एक धार्मिक पहचान का नाम नहीं हैं, बल्कि मर्यादा, सम्मान और नैतिकता का प्रतीक हैं। अभिवादन की यह संस्कृति संवाद को मजबूत करती है और जब संवाद मजबूत होता है, तो समाज में भरोसा बढ़ता है।
दुनिया के सामने भी भारत की छवि तेजी से बदल रही है। भारत अब केवल विकासशील देश नहीं, बल्कि परंपरा और आधुनिकता के संतुलन का उदाहरण बन रहा है। युवा पीढ़ी इस बदलाव का केंद्र है, जो तकनीक, स्टार्टअप और सांस्कृतिक आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रही है।
आज भारत साफ कह रहा है कि विकास केवल आंकड़ों से नहीं मापा जा सकता। विकास आत्मसम्मान से जुड़ा होता है, संस्कृति से जुड़ा होता है और समाज के आत्मविश्वास से जुड़ा होता है। जब जनता अपनी कहानी खुद लिखने लगती है, तब समझ लेना चाहिए कि देश सही दिशा में आगे बढ़ रहा है। यही नए भारत का सच है।

