जड़ों से जुड़ती नई पीढ़ी ही भारत का भविष्य

– पूर्णेन्दु पुष्पेश 

भारत आज जिस मोड़ पर खड़ा है, वहां सबसे बड़ा सवाल यह नहीं है कि हमारे पास कितनी तकनीक है या हमारी अर्थव्यवस्था कितनी तेज़ बढ़ रही है। असली सवाल यह है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं? सिर्फ डिग्री और मोबाइल, या फिर संस्कार, पहचान और आत्मगौरव भी? अगर नई पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कट गई, तो विकास की सारी चमक खोखली साबित होगी। भारत की ताकत हमेशा उसकी संस्कृति रही है, और आज उसी संस्कृति को नए समय की भाषा में फिर से समझने और अपनाने की ज़रूरत है।

हमारे पुरखों ने जीवन को केवल “मैं” के दायरे में नहीं देखा। उनका सोचने का तरीका बड़ा था -परिवार, समाज, गांव, राष्ट्र और पूरी धरती तक फैला हुआ। कभी ईमानदारी इतनी स्वाभाविक थी कि जो चीज़ अपनी नहीं होती थी, उसे हाथ लगाने का सवाल ही नहीं उठता था। आज हालात उलट हैं। मौका मिले तो अपना भी कम और दूसरे का ज़्यादा हड़पने की सोच बन गई है। फर्क सिर्फ समय का नहीं है, फर्क सोच का है। यही सोच भारतीय संस्कृति बदलने आई थी और आज फिर वही सोच हमें वापस बुला रही है।

भारतीय परंपरा ने हमेशा यह सिखाया कि अकेला व्यक्ति कुछ नहीं होता, सब साथ हों तभी समाज मजबूत बनता है। रामायण हमें बताती है कि जब अलग-अलग वर्ग, जाति और समुदाय एक लक्ष्य के लिए एकजुट होते हैं, तो सबसे बड़ी ताकत भी हार जाती है। राम की जीत सिर्फ युद्ध की जीत नहीं थी, वह संगठन, विश्वास और समरसता की जीत थी। यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है, खासकर उस दौर में जब समाज छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटता जा रहा है।

महाभारत का संदेश और भी तीखा है। जब अपने ही अपने से लड़ने लगें, जब लालच रिश्तों से बड़ा हो जाए, तब विनाश तय होता है। आज का युवा अगर केवल “मेरा करियर, मेरी लाइफ, मेरा फायदा” तक सीमित रह गया, तो समाज भीतर से कमजोर होगा। भारतीय संस्कृति हमें सिखाती है कि अधिकार के साथ कर्तव्य भी होता है। परिवार, समाज और देश के प्रति जिम्मेदारी कोई बोझ नहीं, बल्कि सम्मान है।

आज पूरी दुनिया अशांति से जूझ रही है। कहीं युद्ध, कहीं नस्ल और मजहब के नाम पर हिंसा, कहीं अकेलापन और अवसाद। ऐसे में भारत की सांस्कृतिक सोच दुनिया के लिए उम्मीद बन सकती है। “वसुधैव कुटुंबकम” कोई नारा नहीं, बल्कि जीवन जीने की शैली है। जब हम कहते हैं कि पूरी धरती एक परिवार है, तो उसमें शोषण, नफरत और युद्ध की कोई जगह नहीं बचती। यही भारतीय सोच आज वैश्विक समाधान बन सकती है।

नई पीढ़ी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह पश्चिमी जीवनशैली और आधुनिकता के नाम पर अपनी पहचान न खो दे। आधुनिक होना गलत नहीं है, लेकिन जड़ों से कट जाना खतरनाक है। भारतीय संस्कृति यह नहीं कहती कि विज्ञान, तकनीक या प्रगति से दूर रहो। वह तो संतुलन सिखाती है। जहां मोबाइल हाथ में हो, लेकिन माता-पिता का सम्मान दिल में हो; जहां करियर ऊंचा हो, लेकिन चरित्र उससे भी ऊंचा हो।

भारतीय संस्कृति का सबसे सुंदर पक्ष उसका समावेशी स्वभाव है। यहां जो भी आया, वह यहीं का हो गया। भाषा बदली, पहनावा बदला, लेकिन संस्कृति ने सबको जगह दी। यही कारण है कि सदियों की आंधियों के बाद भी यह संस्कृति जीवित है। मुगल काल हो या अंग्रेजों का शासन, कोशिशें बहुत हुईं, लेकिन भारत की आत्मा को मिटाया नहीं जा सका। आज वही आत्मा फिर जागने को तैयार है।

नई पीढ़ी को यह समझना होगा कि संस्कृति कोई पुरानी किताब नहीं, जिसे अलमारी में बंद कर दिया जाए। संस्कृति रोज़मर्रा के व्यवहार में दिखती है। बोलचाल में, रिश्तों में, काम करने के तरीके में। ईमानदारी, संयम, नारी सम्मान, सेवा भाव और आत्मअनुशासन। ….ये सब भारतीय संस्कृति के मूल तत्व हैं। अगर युवा इन्हें अपने जीवन में उतार लें, तो राष्ट्र अपने आप मजबूत हो जाएगा।

राष्ट्रवाद का मतलब सिर्फ झंडा उठाना या नारे लगाना नहीं है। राष्ट्रवाद का असली अर्थ है अपने समाज को बेहतर बनाना, अपने आचरण से देश की छवि ऊंची करना। जब युवा अपने काम में ईमानदार होगा, परिवार से जुड़ा रहेगा और समाज के लिए सोचेगा, तभी भारत सच में विश्वगुरु बनने की दिशा में आगे बढ़ेगा।

आज जरूरत इस बात की है कि नई पीढ़ी गर्व के साथ कहे. …..हम आधुनिक भी हैं और भारतीय भी। हमारी पहचान हमारी कमजोरी नहीं, हमारी सबसे बड़ी ताकत है। जड़ों से जुड़ी नई पीढ़ी ही आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और शक्तिशाली भारत की असली नींव रखेगी। यही राष्ट्रधर्म है और यही भविष्य का रास्ता।

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