- पूर्णेन्दु पुष्पेश .
बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो हो रहा है, उसे अब “अलग-थलग घटना” कहकर टालना खुद से झूठ बोलने जैसा है। यह कोई अचानक भड़की भीड़ का मामला नहीं, बल्कि सालों से चलता आ रहा एक डरावना सिलसिला है। कभी किसी नौजवान को पीट-पीटकर मार दिया जाता है, कभी किसी की लाश पेड़ से लटकाकर जला दी जाती है, कभी मंदिर तोड़ दिए जाते हैं तो कभी पूरी बस्ती उजाड़ दी जाती है। संदेश साफ है. ….हिंदू हो तो चुपचाप सहो, वरना अंजाम भुगतो। यह हकीकत जितनी कड़वी है, उतनी ही असुविधाजनक भी, इसलिए कुछ लोग इसे मानने से ही इनकार कर देते हैं।
ऐसे में सबसे ज्यादा गुस्सा तब आता है जब अपने ही देश में बैठा कोई कथित “नेता” यह समझाने लगे कि असल में कुछ हो ही नहीं रहा। ऑल इंडिया इमाम एसोसिएशन का अध्यक्ष मौलाना साजिद रशीदी का यह कहना कि बांग्लादेश में हिंदुओं का नरसंहार नहीं हो रहा, न सिर्फ आंख मूंद लेने जैसा है बल्कि पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा भी है। सवाल यह नहीं कि शब्द “नरसंहार” इस्तेमाल किया जाए या नहीं, सवाल यह है कि क्या हिंदू सुरक्षित हैं? और जवाब हर जली हुई बस्ती, हर टूटे मंदिर और हर पलायन करते परिवार में साफ दिखता है।
रशीदी कहता हैं कि यह गुस्सा सरकार के खिलाफ है, हिंदुओं के खिलाफ नहीं। अगर ऐसा है तो फिर सरकार की इमारतें क्यों नहीं जलाई जातीं? अफसरों के घर क्यों नहीं टूटते? मंदिरों में घुसकर मूर्तियां क्यों तोड़ी जाती हैं? हिंदू दुकानों और घरों को ही क्यों निशाना बनाया जाता है? सच्चाई यह है कि गुस्से की दिशा जानबूझकर एक समुदाय की ओर मोड़ी जा रही है। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि एक पहचाना हुआ पैटर्न है, जिसे देखने के लिए ईमानदार नजर चाहिए। किन्तु यह बात वो कैसे समझेंगे जो भारत को अपना राष्ट्र मानते ही नहीं, जो गज़बा-ए-हिन्द का मंसूबा पाले बैठे हैं। मौलाना रशीदी द्वारा गाजा और भारत की मॉब लिंचिंग का उदाहरण देना भी उनकी बौद्धिक दिवालियापन को उजागर करता है।
जब कहा जाता है कि “हिंसा को धर्म से जोड़ना गलत है”, तो यह सुनने में बड़ा सभ्य लगता है। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि मरने वालों की पहचान बार-बार एक ही धर्म से निकलती है। अगर हर बार पीड़ित हिंदू हों, तो सवाल उठाना लाजिमी है। इसे “धर्मनिरपेक्ष गुस्सा” बताना दरअसल सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश है। यह वही तरीका है जिसमें पहले पीड़ित को मारा जाता है और फिर उसकी पहचान ही मिटा दी जाती है।
गाजा या भारत की मॉब लिंचिंग से तुलना करना भी इसी भ्रम फैलाने की रणनीति का हिस्सा है। नरसंहार का मतलब यह नहीं होता कि एक दिन में लाखों लोग मारे जाएं। कभी-कभी यह धीमी मौत होती है। डर के साथ जीना, अपमान सहना, जमीन छोड़ना और आखिरकार देश छोड़ने पर मजबूर होना। बांग्लादेश में हिंदुओं की घटती आबादी इसी धीमी मौत की कहानी कहती है, जिसे आंकड़े भी झुठला नहीं सकते।
1971 के बाद से बांग्लादेश में हिंदुओं की संख्या लगातार घटी है। लगभग एक चौथाई रह गई है। यह कोई प्राकृतिक बदलाव नहीं है। यह डर, हिंसा, जबरन कब्जे और सामाजिक बहिष्कार का नतीजा है। जब दशकों तक एक समुदाय को इसी तरह निशाने पर रखा जाए, तो उसे सिर्फ “घटना” कहना या शब्दों की बाजीगरी करना बेमानी है। यह सच्चाई से भागने का तरीका है, समाधान का नहीं।
यह तर्क भी दिया जाता है कि इस्लाम किसी की हत्या की इजाजत नहीं देता। बात सही हो सकती है, लेकिन सवाल धर्मग्रंथों का नहीं, जमीनी हालात का है। जब धर्म की आड़ में हिंसा हो और अपराधियों को सजा न मिले, तो वह व्यक्तिगत अपराध नहीं रहता, वह एक संस्थागत समस्या बन जाती है। और बांग्लादेश में यही हो रहा है।
सबसे खतरनाक बात यह है कि ऐसे बयान हिंसा करने वालों का हौसला बढ़ाते हैं। जब प्रभावशाली लोग कहें कि “कोई खतरा नहीं है”, तो यह संदेश जाता है कि पीड़ितों की चीखें बेकार हैं। यह सिर्फ बांग्लादेश के हिंदुओं का अपमान नहीं, बल्कि हर उस भारतीय हिंदू की भावनाओं का मजाक है जो यह सब देखकर व्यथित है।
दोहरे मापदंडों की बात करने वाले लोग पहले अपने गिरेबान में झांकें। जब पीड़ित हिंदू होते हैं, तो संवेदना अचानक कम क्यों हो जाती है? मानवाधिकार किसी मजहब के मोहताज नहीं होते। हिंसा हिंसा होती है, चाहे पीड़ित कोई भी हो।
आज जरूरत है साफ नजर और साफ शब्दों की। बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो हो रहा है, उसे स्वीकार करना होगा, उस पर खुलकर बोलना होगा और पीड़ितों के साथ खड़ा होना होगा। सच्चाई को नकारना या उसे हल्का दिखाना भी एक तरह का अपराध है। जब निर्दोष हिन्दू मारे जा रहे हों और कोई कहे कि “सब ठीक है”, तो वह भी इस अन्याय में भागीदार बन जाता है। यही वह सच है, जिससे भागा नहीं जा सकता।

