– पूर्णेन्दु ‘पुष्पेश’
दुनिया जितनी आगे बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से एक सच्चाई सामने आ रही है। महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा खत्म नहीं हो रही, बल्कि नए-नए रूपों में बढ़ रही है। आज भी हर तीन में से एक महिला अपने जीवन में कम से कम एक बार शारीरिक या यौन हिंसा का सामना करती है। पहले यह हिंसा घर, सड़क या कार्यस्थल तक सीमित थी, लेकिन अब इसका एक नया मैदान बन चुका है -डिजिटल दुनिया। यह वही दुनिया है जिसे कभी आज़ादी, समानता और अभिव्यक्ति का स्थान माना जाता था, लेकिन अब यह महिलाओं के लिए अपमान, डर और उत्पीड़न की सबसे तेज़ी से बढ़ती जगह बन गई है।
सोशल मीडिया और इंटरनेट के इस दौर में महिलाएँ जब अपनी बात कहती हैं, किसी अन्याय पर आवाज उठाती हैं, राजनीति में आगे बढ़ती हैं, पत्रकारिता करती हैं या सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय रहती हैं—तो उन्हें समर्थन जितना मिलता है, हमला उससे कहीं ज्यादा झेलना पड़ता है। डिजिटल हिंसा का उद्देश्य स्पष्ट होता है -महिलाओं को चुप कराना, डराना और सार्वजनिक जीवन से पीछे धकेल देना। यह सिर्फ कुछ गालियों या ट्रोलिंग की बात नहीं है। यह वही मानसिकता है जो महिलाओं की स्वतंत्रता को चुनौती देती है और उनकी उपलब्धियों से जलती है।
यह डिजिटल हिंसा बढ़ क्यों रही है? सबसे पहली वजह है कई देशों के कमजोर साइबर कानून। डिजिटल उत्पीड़न को लेकर कानून या तो बने ही नहीं हैं, बने हैं तो अस्पष्ट हैं, और जहाँ स्पष्ट हैं, वहाँ लागू करने की इच्छाशक्ति नहीं है। सोशल मीडिया कंपनियों की भी कोई जवाबदेही तय नहीं है। वे सिर्फ लाभ कमाने पर केंद्रित हैं, महिलाओं की सुरक्षा उनके लिए प्राथमिक मुद्दा ही नहीं। एआई की वजह से हिंसा के नए-नए रूप सामने आ रहे हैं जैसे डीपफेक वीडियो, हेरफेर की गई तस्वीरें और फर्जी ऑडियो, जिनका इस्तेमाल महिलाओं को बदनाम करने के लिए किया जाता है। अपराधियों की पहचान छिपाने के इतने तरीके हैं कि उन्हें पकड़ना मुश्किल हो जाता है। पीड़ित महिलाओं को समर्थन भी अक्सर नहीं मिलता; न घर से, न समाज से, और न ही सिस्टम से। लोग यह सोचकर बात को टाल देते हैं कि हिंसा “ऑनलाइन” हुई है, जबकि इसका दर्द असल ज़िंदगी में उतरता है।
डिजिटल हिंसा के दायरे में आने वाले रूप बेहद खतरनाक हैं -बिना सहमति निजी तस्वीरें डालना, ऑनलाइन यौन उत्पीड़न, धमकियाँ, ट्रोलिंग, गलत सूचना फैलाकर बदनाम करना, किसी महिला का पता और फोन नंबर सार्वजनिक कर देना, ऑनलाइन पीछा करना, डीपफेक पोर्न बनाना, और संगठित महिला-विरोधी समूहों द्वारा सामूहिक हमले करना। अक्सर यह हिंसा ऑनलाइन शुरू होती है, लेकिन असल जीवन में धमकी, शारीरिक हमला या हत्या तक का रूप ले सकती है। इसका असर मानसिक तनाव, शर्म, डर, सोशल बहिष्कार और करियर की हानि के रूप में लंबे समय तक बना रहता है।
सबसे ज्यादा निशाने पर वे महिलाएँ आती हैं जो सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हैं -पत्रकार, नेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता और युवा सामाजिक कार्यकर्ता। इसके अलावा, जाति, धर्म, विकलांगता, लैंगिक पहचान या यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव का सामना करने वाली महिलाएँ डिजिटल हिंसा की शिकार कहीं अधिक होती हैं। यानी डिजिटल दुनिया में भी वही असमानताएँ मौजूद हैं जो समाज में हैं, बस उनका रूप बदल गया है।
तथ्य बताते हैं कि स्थिति कितनी गंभीर है। 38% महिलाएँ डिजिटल हिंसा का प्रत्यक्ष अनुभव कर चुकी हैं। 85% ने इसे दूसरों के खिलाफ होते देखा है। 90 से 95 प्रतिशत डीपफेक सामग्री अश्लील होती है और उनमें लगभग 90 प्रतिशत मामलों में महिलाएँ ही होती हैं। 73% महिला पत्रकार ऑनलाइन हमलों का सामना करती हैं। इसके बावजूद दुनिया के 40 प्रतिशत से भी कम देशों में महिलाओं को साइबर उत्पीड़न से बचाने वाले कानून मौजूद हैं। इसका मतलब है कि 1.8 अरब महिलाएँ और लड़कियाँ आज भी कानूनी सुरक्षा के बिना डिजिटल दुनिया का सामना कर रही हैं।
अब सवाल यह है कि इसका समाधान क्या है? समाधान किसी एक संस्था या सरकार के पास नहीं है। यह सामूहिक प्रयास का विषय है। सरकारों को मजबूत कानून बनाने ही होंगे, ऐसे कानून जो तेज़, स्पष्ट और लागू होने योग्य हों। सोशल मीडिया कंपनियों को जवाबदेह बनाना होगा। यह नहीं चलेगा कि उनके प्लेटफॉर्म पर महिलाओं को धमकियाँ मिलें और वे इसे सिर्फ ‘कम्युनिटी गाइडलाइंस’ का मामला कहकर टाल दें। स्कूल और कॉलेज स्तर पर डिजिटल साक्षरता जरूरी है, ताकि युवा समझें कि ऑनलाइन स्पेस भी जिम्मेदारी का क्षेत्र है। पीड़िताओं के लिए मनोवैज्ञानिक और कानूनी सहायता की व्यवस्था मजबूत होनी चाहिए। और सबसे जरूरी कि समाज की चुप्पी खत्म होनी चाहिए। जब किसी महिला पर डिजिटल हमला होता है, तब दर्शकों का मौन भी हिंसा को बढ़ावा देता है।
महिलाओं के विरुद्ध हिंसा केवल महिलाओं की समस्या नहीं है। यह समाज की मानसिकता का प्रतिबिंब है। यह दिखाता है कि तकनीक आगे बढ़ गई है, लेकिन सोच अब भी पुरानी है। महिलाओं के खिलाफ ऑनलाइन हिंसा न सिर्फ व्यक्तिगत हमला है बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों पर भी हमला है। अगर हम सच में एक सुरक्षित और प्रगतिशील समाज बनाना चाहते हैं, तो डिजिटल दुनिया में महिलाओं की सुरक्षा एक दिन का विषय नहीं, बल्कि लगातार चलने वाला आंदोलन होना चाहिए।
महिलाएँ डिजिटल स्पेस से हटने वाली नहीं हैं। उनकी आवाज़ को दबाने की कोशिशें नई होंगी, पर उनका संघर्ष भी उतना ही दृढ़ रहेगा। बदलना तो हिंसा को होगा, समाज को नहीं। और यह बदलाव तभी आएगा जब हम सब मिलकर यह समझें कि महिलाओं की सुरक्षा सिर्फ उनकी लड़ाई नहीं -पूरे समाज की जिम्मेदारी है।
