क्या ममता बनर्जी का राजनीतिक अंत शुरू हो चुका है?


– पूर्णेन्दु पुष्पेश

पश्चिम बंगाल की राजनीति फिर एक निर्णायक मोड़ पर है। यह वही राज्य है जिसने कभी वाम दलों को लगातार 34 वर्षों तक शासन में बनाए रखा, फिर एक दिन मतदान ने करवट ली और ममता बनर्जी अकेली शक्ति बनकर उभरीं। लेकिन आज वही जनमत बदलता हुआ दिख रहा है। सवाल यह है कि क्या यह बदलाव मात्र राजनीतिक उतार-चढ़ाव है या फिर यह ममता की राजनीति के अंत की औपचारिक शुरुआत? क्या मुसलमान मतदाता, जो कभी उनके सबसे बड़े राजनीतिक आधार थे, अब उनसे दूरी बना रहे हैं? और क्या यह राजनीतिक पलायन उनके भविष्य के लिए चेतावनी से बढ़कर खतरे की घंटी है?

पिछले कुछ महीनों में बंगाल के भीतर हुई घटनाएँ संकेत दे रही हैं कि मुस्लिम राजनीति का स्वर बदल रहा है। टीएमसी विधायक हुमायूं कबीर द्वारा नई पार्टी की घोषणा सिर्फ एक राजनीतिक कदम नहीं, बल्कि एक वैचारिक दूरी और असंतोष की अभिव्यक्ति है। बंगाल की राजनीति में मुस्लिम वोट हमेशा निर्णायक तत्व रहा है। टीएमसी के शासनकर्ता वर्षों से इसी सामाजिक-सियासी समीकरण पर टिके रहे। किंतु अब यही समीकरण ममता सरकार की नींव को हिला रहा है।

हुमायूं कबीर और उनके समर्थकों द्वारा मुर्शिदाबाद में “बाबरी मस्जिद” नामक पोस्टर लगाना एक साधारण पोस्टरबाजी नहीं, बल्कि एक संदेश है, एक चुनौती है। यह संदेश साफ है कि बंगाल का एक हिस्सा अब ममता को मुस्लिम नेतृत्व का प्रतीक मानने को तैयार नहीं। इसका अर्थ है कि मुस्लिम मतदाता नई राजनीतिक पहचान और नया प्रतिनिधि खोज रहा है। यदि यह प्रवाह जारी रहा तो यह ममता के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक संकट बन सकता है।

तथ्य यह है कि ममता बनर्जी की राजनीति बीते दस वर्षों में एक खास रणनीति पर आधारित रही -तुष्टिकरण। दुर्गा विसर्जन पर रोक, हिंदू त्योहारों पर सेक्युलर तर्कों की आड़ में लगाए गए प्रतिबंध, धार्मिक जुलूसों पर प्रशासनिक हस्तक्षेप और कट्टरपंथी समूहों को राजनीतिक संरक्षण; इन सभी निर्णयों ने उन्हें मुस्लिम मतदाताओं में लोकप्रिय बनाया, परंतु इसी प्रक्रिया में हिन्दू समाज की भावनाएँ आहत हुईं। उस समय शायद उन्हें लगा होगा कि सत्ता टिकाने के लिए यह आवश्यक है, लेकिन आज वही नीति उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक कमजोरी बन रही है।

अब जबकि मुस्लिम समुदाय भी उनसे दूर होता दिख रहा है, उनकी राजनीतिक जमीन पहले से कहीं कमजोर दिखाई देती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह दूरी किसी राजनीतिक दल की प्रेरणा से नहीं, बल्कि अंदरूनी असंतोष और असंतुष्टि से पैदा हुई है। यह बदलाव अचानक नहीं आया; वर्षों की निराशा, अपेक्षाओं का टूटना और नई धार्मिक पहचान की राजनीति ने इस प्रक्रिया को जन्म दिया है।

राजनीति सिर्फ वोटों से नहीं चलती, बल्कि विश्वास से चलती है। जब जनता मान ले कि नेता अब उनके हितों का प्रतिनिधि नहीं रहा, तब परिवर्तन स्वतः शुरू हो जाता है। आज बंगाल का हिन्दू मतदाता टीएमसी के विकल्प तलाश चुका है और मुस्लिम मतदाता भी शायद उसी दिशा में बढ़ रहा है। यदि दोनों समूहों ने राजनीतिक दूरी बना ली, तो यह किसी भी पार्टी के लिए सबसे बड़ा संकट होता है।

भारत की राजनीति में इतिहास हमें यह सिखाता है कि तुष्टिकरण कभी स्थायी राजनीतिक आधार नहीं बन सकता। तुष्टिकरण एक अस्थायी नीति है -लेकिन जब नेता उसी को अपनी विचारधारा बना लेता है, तब वह अपने ही मतदाताओं से कटने लगता है। यही ममता की समस्या रही है। उन्होंने जिनके लिए संघर्ष किया, वही आज प्रश्न पूछ रहे हैं। और जिनको उन्होंने नज़रअंदाज़ किया, उनका विश्वास अब कभी लौटने वाला नहीं।

‘बाबर मस्जिद’ विवाद इस स्थिति को और जटिल बना रहा है। बाबर भारतीय इतिहास में सम्मानित व्यक्तित्व नहीं रहे, बल्कि एक विदेशी आक्रांता और विनाशकारी अभियान के प्रतीक माने जाते हैं। ऐसे नामों को पुनर्जीवित कर राजनीतिक आधार बनाना भारत की सांस्कृतिक चेतना के खिलाफ है। इससे न केवल राष्ट्रीय भावना आहत होती है, बल्कि धर्म और राजनीति का संघर्ष और गहरा होता है। ऐसे घटनाक्रमों से ममता सरकार की छवि और अधिक कमजोर हो रही है।

अब सबसे बड़ा प्रश्न यही है – क्या ममता बनर्जी इस राजनीतिक चुनौती को समझकर अपनी रणनीति बदल पाएँगी, या बदलते राजनीतिक समीकरण उन्हें राजनीतिक हाशिये पर धकेल देंगे? बंगाल की राजनीति हमेशा उग्र और अनिश्चित रही है। यहाँ सत्ता लंबे समय तक टिकने के लिए सिर्फ प्रशासन पर्याप्त नहीं होता; भावनाएँ, प्रतीक और पहचान राजनीति का आधार बनते हैं।

राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। सत्ता और साम्राज्य हमेशा जनता के मन में बसे विश्वास से चलते हैं, न कि घोषणाओं, भाषणों और नारों से। यदि ममता अब भी यह मानती हैं कि चुनाव सिर्फ वोटों से जीता जा सकता है, तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल होगी। क्योंकि अब सवाल वोट का नहीं, विश्वास का है।

और जब जनता विश्वास वापस लेना शुरू कर दे तब सत्ता का अंत निश्चित होता है। शायद बंगाल अब वैसा नहीं रहा जैसा ममता बनर्जी ने बनाया था। शायद यह उनकी राजनीति का अंतिम अध्याय है।

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