लोकतंत्र की रक्षा का समय -देश पहले, राजनीति बाद में

– पूर्णेन्दु पुष्पेश

आज देश एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां नागरिक सिर्फ विकास नहीं, बल्कि व्यवस्था की ईमानदारी भी चाहते हैं। मतदाता सूची का पुनरीक्षण इसी ईमानदारी की दिशा में उठाया गया कदम है। लेकिन जैसे ही चुनाव आयोग ने ये प्रक्रिया शुरू की, विपक्ष ऐसे उछल पड़ा मानो उनसे कोई अमूल्य अधिकार छीन लिया गया हो। सवाल यह नहीं कि सूची का पुनरीक्षण क्यों हो रहा है, असली सवाल यह है कि इसे लेकर बौखलाहट क्यों हो रही है?

मतदाता सूची की सफाई कोई पार्टी विशेष का मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्र के हित का विषय है। जब नामों की दोहराव हटेगा, फर्जी वोट बंद होंगे, मृतकों के नामों पर होने वाली वोटिंग रुकेगी, और जिनका घर बदल गया है उनकी अपडेटेड एंट्री होगी, तो इससे नुकसान किसे है? उस नागरिक को जो देश के लिए वोट डालने आता है? या उस राजनीतिक दल को जो फर्जी वोटिंग पर टिके सत्ता के सपने पालता है?

असल दर्द वहीं है। इसलिए विरोध की आवाज वहीं से उठ रही है।

जो नेता अपनी राजनीति फर्जी पहचान पर जमाए बैठे हैं, उनको डर लगना स्वाभाविक है। जो घुसपैठियों को सुरक्षित पनाह देते हुए उन्हें वोट बैंक में बदलते आए हैं, उन्हें साफ-सुथरी मतदाता सूची खतरा लगेगी ही। जो वर्षों से मृत आत्माओं की वोटिंग के सहारे विधानसभा और संसद में पहुंचे हैं, उनका गुस्सा भी समझा जा सकता है। पर देश कब तक ऐसी विकृत राजनीति का बोझ उठाता रहेगा?

वोटों का हिसाब-किताब सिर्फ एक चुनाव का नहीं, यह राष्ट्र की सुरक्षा, राष्ट्र की एकता, और राष्ट्र की अस्मिता से जुड़ा मामला है। अगर घुसपैठिए खुलेआम नागरिक अधिकारों में सेंध मारेंगे, अगर नकली वोटों से सरकारें बनेंगी, अगर लोकतंत्र के मंदिर में प्रवेश का रास्ता धांधली से तय होगा, तो फिर विकास की बात करना महज ढोंग रह जाएगा।

आज पुनरीक्षण का विरोध करने वाले दल अपने आपको लोकतंत्र का रक्षक बताने में लगे हैं, लेकिन असलियत यह है कि मतदाता सूची साफ होने से सबसे ज्यादा घबराहट उन्हीं को है। और यह घबराहट साफ बताती है कि असली चोट उनकी राजनीति पर लग रही है, राष्ट्र पर नहीं।

लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब मतदाता असली हों, वोट असली हों और नतीजे ईमानदार हों। यह सुधार किसी सत्ता पक्ष का अहंकार नहीं, बल्कि लोकतंत्र को स्वच्छ बनाने का प्रयास है। और इस स्वच्छता से केवल वही डरते हैं, जिनकी राजनीति गंदगी पर आधारित रही है।

देश की जनता बहुत कुछ देख चुकी है, और अब समझ भी चुकी है। उन्हें पता है कि पारदर्शिता आने पर नुकसान किसे, और फायदा किसे होगा। यही कारण है कि आज भारत का आम नागरिक मतदाता सूची के पुनरीक्षण को सुधार के रूप में देख रहा है, जबकि कुछ राजनीतिक दल इसे अपने अस्तित्व का संकट मान रहे हैं।

ये वही समय है जब देश के नागरिक लोकतंत्र की ढाल बनकर खड़े हों। अगर राजनीति शोर मचाए, तो जनता अपनी आवाज और बुलंद करे। क्योंकि सच दबाने से नहीं, बोलने से बचता है। विपक्ष चाहे जितना चिल्लाए, राष्ट्र की सुरक्षा और लोकतंत्र की शुचिता सर्वोपरि है।

फर्जी वोटरों से बनी सरकारें देश को गड्ढे में डालती हैं, लेकिन साफ-सुथरी मतदाता सूची देश को भविष्य देती है। इसलिए बहस इस बात पर नहीं होनी चाहिए कि पुनरीक्षण क्यों हो रहा है, बल्कि इस बात पर होनी चाहिए कि इसे और मजबूती से कैसे लागू किया जाए।

ये राष्ट्र का सवाल है, राजनीति का नहीं।
और राष्ट्र सबसे पहले है….हर बार, हर परिस्थिति में।

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