नामों से आगे बढ़कर व्यवस्था में राष्ट्रचेतना का संचार आवश्यक

– पूर्णेन्दु पुष्पेश

रायसीना की पहाड़ियों पर चल रहा परिवर्तन किसी इमारत पर नया बोर्ड लगाने की औपचारिकता नहीं, बल्कि भारतीय प्रशासनिक चेतना के पुनर्जागरण का संकेत है। दशकों तक हमारे संस्थानों की भाषा और व्यवहार औपनिवेशिक ढाँचे की याद दिलाते रहे जहाँ शासन सेवा नहीं, दूरी बनाकर रखने का साधन था। आज जब सत्ता के गलियारों में सेवा-तीर्थ और लोक भवन जैसे शब्द गूंजते हैं, तो वे इस मानसिक बोझ को उतारने का साहसिक प्रयास हैं। भाषा केवल सूचना का माध्यम नहीं, राष्ट्र-मन का आकार देने वाली शक्ति है; जब शब्द बदलते हैं, तो सोच भी बदलनी शुरू होती है।

देश के प्रशासनिक ढाँचे में ‘कलेक्टर’ जैसे पदनाम इस बात की याद दिलाते हैं कि यह व्यवस्था मूलतः प्रजा से वसूली और नियंत्रण के लिए बनाई गई थी। भारतीय चिंतन का स्वरूप इससे बिल्कुल भिन्न रहा है। यहाँ सत्ता का अर्थ संरक्षण, पोषण और जवाबदेही है। इसलिए इन नामों का परिवर्तन केवल प्रतीकात्मक पहल नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक स्मृति की वापसी है जिसमें अधिकारी ‘माई-बाप’ नहीं, समाज के सेवक माने जाते हैं। एक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए यह आत्मसम्मान का अधिकार है, विलास नहीं।

फिर भी चुनौती यहीं खत्म नहीं होती। नाम बदलना सिर्फ पहला कदम है; व्यवस्था की आत्मा तभी बदलेगी जब दफ्तरों में बैठी मानसिकता बदलेगी। अगर नई इमारतें पुरानी सोच का आश्रय बनकर रह गईं, तो हर नाम परिवर्तन अधूरा साबित होगा। इसलिए यह जरूरी है कि यह प्रक्रिया सिर्फ तत्कालीन नीतिगत निर्णय न रहकर एक सुनियोजित सांस्कृतिक परियोजना बने। इसके लिए एक राष्ट्रीय आयोग की आवश्यकता है; जहाँ इतिहासकार, भाषाविद और सांस्कृतिक विशेषज्ञ तय करें कि प्रशासनिक शब्दावली का भारतीयकरण किस प्रकार, किस तर्क और किस ऐतिहासिक संदर्भ में होना चाहिए। यह विषय राजनीति का नहीं, भारत की सभ्यता-बोध का है।

संपूर्ण विश्व में उपनिवेशवादी प्रतीकों की पुनर्व्याख्या का दौर चल रहा है। दक्षिण अफ्रीका अपने मूल निवासियों की पहचान को पुनर्स्थापित कर रहा है, न्यूजीलैंड माओरी परंपरा को सम्मान दे रहा है, और अमेरिका भी अपने आदिवासी इतिहास को वापस जगह दे रहा है। भारत का यह कदम उसी वैश्विक धारा का हिस्सा है, पर हमारे लिए यह केवल इतिहास-सुधार नहीं अपितु राष्ट्र-आत्मा का पुनर्उत्थान है। इसे संकीर्णता कहना भारत की अस्मिता की अनदेखी है।

यह भी आवश्यक है कि राज्यों की भाषाई परंपरा इस प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार बने। विविधता भारत की शक्ति है, कमजोरी नहीं। तमिलनाडु की प्रशासनिक शब्दावली तमिल परंपरा से, महाराष्ट्र की मराठा विरासत से, और पूर्वोत्तर की आदिवासी पहचान से शक्ति पाती है जो भारत को टुकड़ों में नहीं बाँटती, बल्कि उसे अधिक जीवंत और स्वाभिमानी बनाती है।

सबसे बड़ी लड़ाई नामों की नहीं, मानसिकता की है। ‘कर्तव्य पथ’ तभी सार्थक होगा जब उस पर चलने वाली संवैधानिक मशीनरी स्वयं कर्तव्य को अपना धर्म माने। ‘लोक भवन’ तभी लोक का भवन बनेगा जब उसमें बैठा तंत्र जनता के प्रति संवेदनशील होगा। यह केवल संरचनात्मक नहीं, नैतिक बदलाव की मांग करता है जहाँ अधिकारी का कद पद से नहीं, जनता की सेवा से मापा जाए।

भारत आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है, जहाँ वह अपनी प्रशासनिक रीढ़ से औपनिवेशिक जंग हटाकर उसे राष्ट्रचेतना की नई धार देना चाहता है। यह समय प्रतीकों को जीवंत मूल्यों में बदलने का है। यदि हम इस भावना को केवल शासन के नारे तक सीमित न रखकर अपने संस्थानों, व्यवहार और निर्णयों में उतार सकें, तो सेवा-तीर्थ केवल नाम नहीं रहेगा। वह भारतीय राज्य के हृदय का स्वर बन जाएगा। यह परिवर्तन इतिहास का बोझ उतारने भर का प्रयास नहीं, बल्कि भविष्य की ओर दृढ़ संकल्प के साथ बढ़ता हुआ स्वतंत्र भारत का आत्मविश्वास है।

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