बिहार बीजेपी की भूल : कायस्थों और यादवों की अनदेखी से फिसल सकता है जनाधार

– पूर्णेन्दु एस.’पुष्पेश’   

बिहार की राजनीति में जातीय गणित केवल वोटों की गिनती नहीं है, यह सत्ता की कुंजी है। जो इसे समझ लेता है, वही राज करता है – और जो इसे नजरअंदाज करता है, उसका सिंहासन डगमगा जाता है। इस बार बिहार बीजेपी ने अपने टिकट बंटवारे में जो खेल खेला है, वह राजनीतिक दृष्टि से आत्मघाती साबित हो सकता है। सवर्णों में कायस्थों और पिछड़ों में यादवों – दोनों प्रभावशाली जातियों को दरकिनार कर पार्टी ने जिस तरह “नए समीकरण” साधने की कोशिश की है, वह असंतुलन पैदा कर सकती है।

कायस्थ समाज की नाराजगी अब छिपी नहीं है। पूरे बिहार में बीजेपी ने कायस्थों को सिर्फ एक सीट देकर मानो यह संदेश दे दिया कि अब उनका राजनीतिक महत्व खत्म हो चुका है। मगर यह भूलना बीजेपी के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। कायस्थ हमेशा से बौद्धिक, प्रशासनिक और संगठनात्मक दृष्टि से मजबूत रहे हैं। दिल्ली से लेकर पटना तक, बीजेपी को जिस वर्ग ने सबसे अधिक वैचारिक आधार दिया, वह कायस्थ ही थे। पर अब हालात बदल रहे हैं- और यह बदलाव भाजपा के लिए खतरे की घंटी है।

बीजेपी का कायस्थों से मोहभंग अब केवल “दिल की बात” नहीं रही, बल्कि “वोट की बात” बन चुकी है। कभी कायस्थ समाज को यह भरोसा था कि बीजेपी उनके विचार और योगदान को सम्मान देती है। पर लगातार उपेक्षा ने इस भरोसे को हिला दिया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि बिहार में कायस्थों का बीजेपी से मोहभंग अब चरम पर है। इस बार तो कायस्थों के बीच एक आम भावना उभर रही है – “जब बार-बार तिरस्कार मिले तो एकता ही जवाब है।” संभव है कि इस बार नितिन नवीन को छोड़कर बाकी सीटों पर कायस्थ वोट बीजेपी से पूरी तरह खिसक जाएं।

राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज है कि कायस्थ समाज की यह नाराजगी किसी “साइलेंट रिवोल्ट” का रूप ले सकती है। कायस्थ भले संख्या में कम हों, लेकिन यह वह वर्ग है जो चुनावी हवा का रुख मोड़ने की क्षमता रखता है। अगर यह वर्ग विपक्ष की ओर झुक गया तो बीजेपी के लिए नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं। जैसा कि कहा गया है – “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।”

अब बात यादवों की। बिहार की राजनीति में यादव जाति का असर सर्वविदित है। और जब मुख्य मुकाबला ही लालू यादव की पार्टी से है, तो बीजेपी का अपने पांच-पांच यादव नेताओं को टिकट से वंचित करना समझ से परे है। इनमें नंद किशोर यादव जैसे वरिष्ठ नेता का नाम कटना न केवल हैरान करने वाला है, बल्कि राजनीतिक दृष्टि से आत्मघाती कदम भी है। यह वही नंद किशोर यादव हैं जिनका नाम बिहार के भावी मुख्यमंत्री के रूप में चर्चाओं में था। ऐसे में उनका टिकट काटना पार्टी के भीतर ही यादव मतदाताओं का मनोबल तोड़ सकता है।

यादव समुदाय विचारधारा से ज्यादा रिश्ते और पहचान पर वोट देता है। बीजेपी को यह भलीभांति पता होना चाहिए कि बिहार में विचारधारा नहीं, जातीय पहचान चलती है। ऐसे में अगर बीजेपी अपने ही यादव नेताओं को किनारे कर देगी तो यादव वोटों का एक बड़ा हिस्सा फिर से लालू यादव की झोली में चला जाएगा।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह वही गलती है जो बीजेपी ने झारखंड में की थी – स्थानीय समीकरणों की अनदेखी और केंद्रीय नेतृत्व का अंधविश्वास। नतीजा सबके सामने है – झारखंड में बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई। लगता है बिहार में इतिहास खुद को दोहराने की तैयारी में है।

बीजेपी के रणनीतिकार शायद यह भूल गए हैं कि राजनीति केवल “विकास” और “मोदी ब्रांड” से नहीं चलती, खासकर बिहार में। यहां राजनीति का ताप जातीय चूल्हे पर पकता है। कायस्थों और यादवों जैसे दो प्रभावशाली सामाजिक समूहों को एक साथ नाराज करना किसी भी दल के लिए आत्मघाती कदम से कम नहीं।

इस चुनाव में कायस्थों और यादवों की नाराजगी बीजेपी के लिए वही साबित हो सकती है जो “भस्मासुर” ने अपने सृष्टिकर्ता के लिए किया था – अपने ही हाथों अपनी हानि। बिहार में जाति राजनीति की रीढ़ है, और जिसने इस रीढ़ को कमजोर समझा, उसकी राजनीतिक चाल गिरे बिना नहीं रहती।

कुल मिलाकर, बिहार बीजेपी के लिए यह चुनाव केवल विपक्ष से लड़ाई नहीं, बल्कि अपनी ही नीतिगत भूलों से संघर्ष है। अगर पार्टी ने समय रहते अपने निर्णयों पर पुनर्विचार नहीं किया, तो यह चुनाव केवल हार-जीत नहीं बल्कि एक बड़ी राजनीतिक चेतावनी साबित होगा – कि बिहार में जातीय गणित को नजरअंदाज करने की कीमत बहुत भारी पड़ती है।

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