सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’।
चुनावों के समय हर बार कुछ मुद्दे सुर्खियों में आ जाते हैं, जिन पर समाज का ध्यान अनिवार्य रूप से केंद्रित हो जाता है। इनमें से एक प्रमुख मुद्दा है चुनावी मीडिया कवरेज और उसका तथाकथित “पैकेज” मॉडल। झारखंड विधानसभा चुनाव में भी यह मुद्दा विशेष रूप से प्रासंगिक हो गया है, जहां हर सीट पर ताजा खबरें, विज्ञापन और प्रचार सामग्री देखने-सुनने को मिलती है। सवाल यह उठता है कि मीडिया और नेताओं के बीच इस तरह के समझौतों को किस दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए? क्या यह लोकतंत्र की मजबूरी है, या फिर सच्चाई कुछ और है?
मीडिया की दुकानदारी: खबर के बदले सौदा
विधानसभा चुनाव में हर उम्मीदवार अपने प्रचार को प्रमुखता देने के लिए मीडिया से संपर्क करता है। जितना बड़ा पैकेज, उतनी बड़ी खबरें प्रकाशित होती हैं, और यह खबरें इस तरह बनाई जाती हैं कि उम्मीदवार विजयी दिखे। मीडिया में छपी खबरें मतदान से पहले ही यह संकेत देती हैं कि चुनाव मात्र एक औपचारिकता है, और नेताजी की जीत सुनिश्चित है। यह पैकेज मॉडल जनता की नजर में एक बड़े घोटाले की तरह है, जहां खबरों को पैसे के बदले बेचा जाता है। लेकिन क्या मीडिया इस व्यवहार के लिए पूरी तरह से दोषी है, या इसका कोई तार्किक कारण भी है?
मीडिया का व्यापारिक पक्ष
आइए, हम मीडिया के इस व्यवहार को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखें। मीडिया, चाहे वह अखबार हो या इलेक्ट्रॉनिक चैनल, आखिरकार एक व्यवसाय है। यह भी किसी अन्य व्यवसाय की तरह अपने अस्तित्व के लिए संसाधनों पर निर्भर करता है। अखबार चलाने के लिए विज्ञापन और प्रायोजित खबरों का एक हिस्सा अनिवार्य है। खासकर चुनावी मौसम में, जब राजनीतिक विज्ञापनों की भरमार होती है, तब मीडिया घराने इन अवसरों का अधिकतम उपयोग करने का प्रयास करते हैं।
लेकिन, इसका दूसरा पहलू भी है। आम जनता का यह आरोप कि “मीडिया बिक चुका है” कहीं न कहीं सही प्रतीत होता है। आज के दौर में जब पत्रकारिता के आदर्श ‘सत्य की खोज’ और ‘जनता की आवाज’ जैसे नैतिक सिद्धांतों से दूर होते जा रहे हैं, तो सवाल उठता है कि क्या मीडिया अपने कर्तव्यों से विमुख हो गया है?
जनता की भूमिका: दोहरा मापदंड?
मीडिया पर उंगली उठाने से पहले हमें यह देखना चाहिए कि जनता खुद भी इस पूरे खेल में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्या जनता अपने मताधिकार का सही इस्तेमाल कर रही है? क्या वह जाति, धर्म, और निजी स्वार्थों के आधार पर वोट नहीं कर रही है?
जब एक उम्मीदवार जनता के वोट पाने के लिए जातिगत समीकरणों का सहारा लेता है, तब मीडिया का पैकेज मॉडल भी उसी राजनीति का एक हिस्सा बन जाता है। आधे से ज्यादा सांसद और विधायक जिनके खिलाफ संगीन अपराधों के आरोप हैं, वे जनता के वोटों से ही चुने जाते हैं। ऐसे में यह कहना कि सिर्फ मीडिया और नेता दोषी हैं, जनता की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने जैसा है।
नेता और पत्रकार: संघर्ष की समानता
नेता और पत्रकार, दोनों ही चुनावी प्रक्रिया के दौरान संघर्ष कर रहे होते हैं। जहां एक तरफ नेता अपने राजनीतिक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए दिन-रात मेहनत करता है, वहीं दूसरी तरफ पत्रकार भी अपने पेशेवर जिम्मेदारियों और नैतिकता के बीच संतुलन साधने का प्रयास करता है।
नेता की ओर से देखें तो, वह चुनावी मैदान में उतरते ही एक अलग ही दुनिया में प्रवेश करता है। उसे हर किसी से मिलना होता है, मीठी बातें करनी होती हैं, और यहां तक कि विरोधियों से भी समझौता करना पड़ता है। उसे हर किसी को खुश रखने की कोशिश करनी होती है—मीडिया से लेकर पार्टी नेतृत्व तक।
पत्रकार भी इससे अलग नहीं है। चुनाव के दौरान उस पर भी बड़ा दबाव होता है। अगर वह किसी बड़े मीडिया हाउस में काम कर रहा है, तो उसे न केवल खबरें देने की चुनौती होती है, बल्कि उसे प्रबंधन के दबाव का भी सामना करना पड़ता है। कई बार उसे ‘पैकेज’ के नाम पर समझौता करना पड़ता है, जो उसके पेशेवर नैतिकता के खिलाफ हो सकता है।
पैकेज मॉडल का लोकतंत्र पर प्रभाव
पैकेज मॉडल का प्रभाव लोकतंत्र पर बहुत गहरा है। यह न केवल चुनावी प्रक्रिया को विकृत करता है, बल्कि समाज की सोच को भी प्रभावित करता है। मीडिया को जब खबरें बेचने के लिए बाध्य किया जाता है, तो जनता को सच्चाई से दूर रखा जाता है।
हालांकि, यह केवल मीडिया और नेताओं की गलती नहीं है। जनता भी इस पूरी प्रक्रिया में भागीदार है। उसे इस खेल का हिस्सा बनने से इनकार करना चाहिए। मीडिया जब झूठी खबरें दिखाता है, तो उसे बंद कर देना चाहिए। नेता जब झूठे वादे करता है, तो उसे वोट नहीं देना चाहिए।
समाधान की तलाश: नैतिकता की पुनःस्थापना
इस पूरे मुद्दे का समाधान यह है कि सभी पक्ष अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को समझें और उनका पालन करें। मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी कि वह जनता को सही जानकारी प्रदान करे। नेताओं को भी अपनी राजनीति की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा।
जनता को सबसे बड़ी भूमिका निभानी होगी। उसे यह समझना होगा कि लोकतंत्र केवल चुनावी प्रक्रिया तक सीमित नहीं है। अगर उसे अपने नेताओं और मीडिया से सच्चाई की उम्मीद है, तो उसे खुद भी सच्चाई के साथ खड़ा होना होगा। जब तक जनता अपने वोट का सही इस्तेमाल नहीं करेगी, तब तक यह चुनावी खेल चलता रहेगा।
एक स्वस्थ लोकतंत्र की ओर
इस चुनावी खेल का अंत तभी हो सकता है जब सभी पक्ष अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से लें। मीडिया को अपनी भूमिका का पुनरावलोकन करना होगा और पत्रकारिता के आदर्शों की ओर लौटना होगा। नेताओं को अपनी राजनीतिक नैतिकता को पुनः स्थापित करना होगा। और सबसे महत्वपूर्ण, जनता को अपनी भूमिका को समझना होगा।
अगर हम सभी इस चक्र को तोड़ने के लिए तैयार हैं, तो हमें अपने लोकतंत्र को एक नई दिशा में ले जाने का अवसर मिलेगा। अन्यथा, यह लोकतंत्र का तमाशा यूं ही चलता रहेगा, और जनता इसके पीछे की सच्चाई को कभी नहीं जान पाएगी।