सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
झारखंड की धरती एक बार फिर उसी दाग़ से सनी है, जो बरसों से इसकी छवि को मलिन करता रहा है—भ्रष्टाचार। विनय चौबे की गिरफ्तारी कोई ताज़ा हादसा नहीं है, बल्कि यह उस दीर्घकालिक रोग का नया लक्षण है जिससे झारखंड की शासन-व्यवस्था कई वर्षों से ग्रसित है। फर्क बस इतना है कि इस बार दीवार पर लिखा साफ़-साफ़ पढ़ा जा सकता है: अफसर अकेला नहीं था, योजना ऊपर से थी।
कहावत है — “हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और।” ठीक वैसे ही प्रशासन के ये आला अफसर बाहर से भले ही ‘जनसेवा’ की मूर्ति नज़र आते हों, भीतर से वही ‘जनसेवा’ को जेब में भरने की मशीन बने हुए हैं। और इस मशीनरी का संचालन कोई अकेला विनय चौबे नहीं कर रहा था। यह कोई व्यक्तिगत लालच की कहानी नहीं है। यह एक संस्थागत लूट का मॉडल है, जिसे ऊपर से नीचे तक योजना के तहत चलाया गया।
उत्पाद नीति बदलने से लेकर निजी प्लेसमेंट एजेंसियों को ठेका देने तक, ये सारे निर्णय सचिव स्तर पर नहीं होते, यह हम और आप जानते हैं। लेकिन अफसरों की खास बात यही होती है कि जब मलाई बाँटी जाती है, तो ‘टीम वर्क’ होता है; और जब हाथ कटता है, तो ‘व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी’ बन जाती है। सवाल यह नहीं है कि विनय चौबे ने क्या किया। सवाल यह है कि उसने किनके इशारे पर किया, किनके साथ किया और किसके लिए किया।
जिन शराब ठेकों पर ‘MRP से ज़्यादा’ दाम पर बिक्री के आरोप मीडिया में उछले, उन पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? उत्पाद मंत्री दिवंगत जगरनाथ महतो उस वक्त बेबस क्यों थे? क्या मंत्री पद इतना लाचार है या फिर यह लाचारी दिखाने का अभिनय था, जबकि पर्दे के पीछे ‘कलेक्शन’ समय पर और सही ‘हाथों’ में पहुंच रहा था?
और जब सब ठीक-ठाक चल रहा था, तब विनय चौबे जैसे अफसरों को देवघर मंदिर में मुख्यमंत्री और उनकी पत्नी के साथ मुख्य आसन पर बिठाया जा रहा था, जबकि मंत्री लोग खड़े हो रहे थे। यह किसी “मरी हुई लोकतांत्रिक संवेदना” का सूचक नहीं तो और क्या है? यह सम्मान नहीं था, यह ईनाम था—उस ‘सेवा’ के लिए जो अफसर सरकार को कर रहा था।
लेकिन झारखंड की अफसरशाही कोई नया खेल नहीं खेल रही। इतिहास गवाह है—पूजा सिंघल, छवि रंजन, राजबाला वर्मा… सबके नाम एक-एक करके सामने आए हैं। कुछ पकड़े गए, कुछ बच निकले, और कुछ… सिस्टम को फिर से नयी योजनाएं सुझा रहे हैं। यह सिलसिला चलता ही जा रहा है, और इसका अंत तभी होगा जब हमें खुद समझ में आए कि असल ‘सरकार’ कौन है—नेता या अफसर?
कहते हैं, सत्ता का स्वाद बड़ा मीठा होता है, लेकिन उसकी मिठास डायबिटीज़ जैसी बीमारी साथ लाती है। ये अफसर करोड़ों-करोड़ की लूट कर के हाई बीपी, शुगर और हार्ट अटैक के शिकार हो जाते हैं। किसी रिटायर्ड घोटालेबाज़ अफसर से कभी मिलिए, चेहरे पर अपराधबोध नहीं, बल्कि शिकायतें होती हैं – “सिस्टम ने हमें बलि का बकरा बना दिया।” जैसे ईमानदार रहे होते, तो दाल-रोटी भी नसीब नहीं होती।
यह भी सत्य है कि ब्यूरोक्रेसी की ताकत, नेताओं से कम नहीं होती, बल्कि कहीं ज़्यादा होती है। नेता तो आते-जाते हैं, लेकिन सचिवालयों की कुर्सियों पर दशकों तक जमे अफसर ही असल ताज पहनते हैं। और जब यही अफसर सत्ता की जी-हुज़ूरी में ‘नीति’ का नाम देकर ‘लूट’ का खाका खींचते हैं, तो फिर किसे दोष दें—सिस्टम को या उस चुपचाप बैठे ईमानदार अफसर को जो सब देख रहा है पर चुप है?
पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास का कहना है कि “अब कोई नहीं बचेगा।” मगर जनता के अनुभव बताते हैं कि बचने वाले सबसे पहले वो ही होते हैं जिनके पास वकील, पहुँच और वफादारी की सही टाइमिंग होती है। सीबीआई जांच होनी चाहिए, बिलकुल होनी चाहिए — लेकिन यह जनता की आँखों में धूल न बने, यह सुनिश्चित करना और भी ज़रूरी है।
भ्रष्टाचार की जड़ें सिर्फ़ नेताओं में नहीं हैं, उनकी खाद-पानी तो अफसर ही देते हैं। प्लेसमेंट एजेंसियों से लेकर शराब बिक्री तक, हर योजना के पीछे अफसर की मुहर होती है। अगर अफसर कह दे “नहीं”, तो मंत्री जी को भी दो बार सोचना पड़ता है। इसलिए असली दोषियों को सिर्फ राजनीति में नहीं, प्रशासनिक गलियारों में भी ढूँढना होगा।
हम यह भी नहीं कह सकते कि सारे अफसर भ्रष्ट हैं। पर यह कहना भी झूठ होगा कि चंद अफसरों की वजह से सिस्टम गंदा हो गया है। सच्चाई यह है कि सिस्टम ने ही गंदगी को संस्थागत बना दिया है। अब भ्रष्टाचार ‘व्यवस्था का हिस्सा’ नहीं, खुद एक व्यवस्था बन चुका है।
और आखिर में जनता—वो भी दोषमुक्त नहीं। आखिर सत्ता में वही आता है जिसे वोट दिया जाता है, और अगर जनता बार-बार उन्हीं चेहरों को चुनती है जिनके पीछे फाइलें लटक रही हैं, तो फिर शिकायत किससे?
निष्कर्ष यही है कि – नौकरी वही अच्छी जिसमें चैन की नींद आए। IAS-IPS अफसर अगर सिस्टम से भी चले, तब भी करोड़पति तो बन ही जाएंगे। पर क्या इतनी दौलत से वे वह सुकून खरीद सकते हैं, जो एक मामूली क्लर्क अपने 30 साल की ईमानदार सेवा के बाद पेंशन में पाता है?
विनय चौबे की कहानी कोई अपवाद नहीं, यह एक चेतावनी है। आने वाली पीढ़ी के अफसरों के लिए। नेताओं के लिए नहीं, क्योंकि वे तो गिरने के लिए ही बने हैं। लेकिन अगर ब्यूरोक्रेसी की रीढ़ सीधी नहीं हुई, तो फिर देश को चलाएगा कौन—घोटालों की गठरी या फिर चापलूसी के चाबुक?
सवाल बहुत हैं, जवाब शायद सिस्टम के पास नहीं। पर जनता के पास एक हथियार है—याददाश्त। वो यदि लंबे समय तक याद रखे कि किसने लूटा, किसने छुपाया और किसने चुप्पी साधी, तो शायद अगली बार किसी अफसर के चेहरे पर देवघर मंदिर में मुस्कान के बदले अपराधबोध दिखे।