दल से बड़ा देश

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘  

कभी देश को पहले रखने की बात करने वाले दल आज उस बात के अर्थ समझने में असहज महसूस कर रहे हैं। ‘दल से बड़ा देश’ का नारा भले ही चुनावी पोस्टरों और प्रेस कॉन्फ्रेंसों में गूंजता हो, लेकिन जैसे ही सत्ता की गंध नथुनों तक पहुंचती है, यह नारा गले की हड्डी बन जाता है; न निगला जाता है, न उगला।

‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के बाद राजनीति का रंग कुछ ऐसा हो गया है कि विपक्षी खेमे के नेता अपने माथे पर हाथ रखकर सोच में पड़ गए हैं कि यह लोकतंत्र है या विवाह मंडप, जहां जनादेश की मांग नहीं, बल्कि ‘सात फेरे’ और सिंदूर से सत्ता का गठबंधन तय होता है। लोकतंत्र के इस नवीन अवतार में संसद की बहसें अब आदर्शों पर नहीं, आरोपों पर केंद्रित हैं और सदन का हर संवाद जैसे ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ का नया एपिसोड बनता जा रहा है।

एक ओर सत्ताधारी दल ऑपरेशन सिन्दूर को ‘संवैधानिक अधिकार’ का प्रयोग बता रहा है, तो दूसरी ओर विपक्ष इसे ‘संवैधानिक व्यभिचार’ की संज्ञा दे रहा है। लेकिन व्यंग्य तो तब शुरू होता है जब वही विपक्ष, जो अभी तक ‘आदर्शों की राजनीति’ का ढोल पीट रहा था, अचानक नई गठजोड़ की संभावना में ‘लाभ और हानि’ का गुणा-भाग करने लगता है। नैतिकता की जो चादर कुछ दिन पहले तक फहराई जा रही थी, वह अब गठबंधन के पलंग पर टेढ़ी पड़ी दिख रही है।
‘दल से बड़ा देश’ का आदर्श तब और हास्यास्पद हो जाता है जब नेता बयान देते हैं -“हम देश को बचाने के लिए किसी से भी हाथ मिला सकते हैं।” इसमें देश से अधिक चिंता अगली चुनावी सीट की होती है। जिन दलों ने कल तक एक-दूसरे को भ्रष्टाचार का प्रतीक बताया था, वे आज साथ बैठकर चाय की चुस्कियों में ‘देश बचाने की रणनीति’ बना रहे हैं। मानो लोकतंत्र एक टेबल हो और राजनीति उसकी शतरंज, जहां चालें देश के लिए नहीं, दल के लिए चली जाती हैं।

ऑपरेशन सिन्दूर के बाद विपक्षी खेमे में जो बेचैनी फैली है, वह किसी लोकतांत्रिक चिंता से नहीं, बल्कि सत्ता के समीकरण गड़बड़ाने की चिंता से है। बयान आ रहे हैं कि ‘जनादेश का अपमान हुआ है’, पर सवाल यह है कि जब जनादेश उनके पक्ष में आता है और वे अंदरखाने ‘मैनेजमेंट’ से सरकार बना लेते हैं, तब यह अपमान नहीं होता? राजनीति में नैतिकता की परिभाषा भी अब वर्दी जैसी हो गई है—जिसे जब चाहे पहन लो, जब चाहे उतार दो।

इस पूरे परिदृश्य में जनता कहां है? वह वहीं है जहां पिछले सत्तर साल से थी—सुनने में, देखने में, लेकिन निर्णय में नहीं। जनता को अब सिर्फ गवाही देने का अधिकार रह गया है—वोट के दिन लाइन में लगकर और फिर टीवी पर नेताओं की अदला-बदली देखकर। ‘दल से बड़ा देश’ का नारा अब चुनावी जुमला बनकर रह गया है, और सत्ता की राजनीति में यह उतना ही अप्रासंगिक है जितना शादी में निमंत्रण के बिना आए रिश्तेदार।

विपक्ष की इस बदलती चाल में सबसे दिलचस्प बात यह है कि अब उन्हें लोकतंत्र की ‘संस्थाओं की गरिमा’ याद आ रही है। वही संस्थाएं जिन्हें उन्होंने अपने समय में सिर्फ rubber stamp की तरह इस्तेमाल किया। सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता, राज्यपाल की भूमिका, लोकसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता -ये सभी अचानक फिर से मूल्यवान हो गए हैं, जैसे किसी पुराने रिश्तेदार की याद सिर्फ संपत्ति बंटवारे के समय आती है।

इस पूरे प्रकरण में सबसे गूंजती आवाज वह है जो कहती है—”हम सत्ता के लिए नहीं, संविधान बचाने के लिए लड़ रहे हैं।” यह वाक्य उतना ही विश्वसनीय है जितना कि परीक्षा में फेल छात्र का यह दावा कि उसकी कॉपी बदल दी गई थी। संविधान की चिंता तभी क्यों होती है जब विपक्ष में बैठना पड़ता है? सत्ता में रहते हुए तो संविधान को ‘अनुकूलित’ करने की कला भी खूब दिखाई देती है।

असल में, ‘दल से बड़ा देश’ का विचार इस देश की राजनीति में उतना ही अव्यवहारिक हो चला है जितना शुद्ध दूध ढूंढना। यह विचार अब सिर्फ घोषणापत्र की भूमिका में जिंदा है -आदर्शवाद के संग्रहालय में सजाया गया एक प्राचीन अवशेष। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते हैं, यह विचार और भी धुंधला हो जाता है, और दल के स्वार्थ देश के ऊपर चढ़ बैठते हैं।

अब वक्त आ गया है कि हम भी यह समझ लें कि ‘दल से बड़ा देश’ कहना आसान है, पर उसे जीना कठिन। यह कथन सिर्फ विरोधियों पर कटाक्ष के लिए नहीं, स्वयं के लिए आत्मावलोकन का भी माध्यम होना चाहिए। वरना हर ऑपरेशन सिन्दूर के बाद यह लोकतंत्र ‘कपोल कल्पना’ बन जाएगा और जनता ‘त्रासदी का पात्र’।

शायद अब भी देर नहीं हुई है। अगर नेता सच में देश को दल से ऊपर मानते हैं, तो उन्हें अपने गठबंधन, बयानबाजी और अवसरवाद पर पुनर्विचार करना चाहिए। क्योंकि देश सिर्फ सत्ता की गाड़ी नहीं है जिसे जो चाहे जब चाहे अपनी दिशा में मोड़ दे। यह करोड़ों लोगों की उम्मीदों, अधिकारों और भावनाओं की थाती है। इसे सिन्दूर की तरह राजनीति के माथे पर सजाने की जरूरत है, न कि किसी छलावे की तरह माथे पर लगाकर दिखावे की।