Editorial by : Purnendu Sinha ‘Pushpesh’
झारखंड, एक आदिवासी बहुल राज्य, अपने सांस्कृतिक वैभव और प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद आज देश में बच्चों की तस्करी के लिए कुख्यात होता जा रहा है। यह कोई एक जिले या एक घटना की बात नहीं है, बल्कि पूरे राज्य की एक गहराई तक जमी हुई सामाजिक, प्रशासनिक और आर्थिक विफलता की कहानी है। नक्सल हिंसा से लेकर अब मानव तस्करी तक, झारखंड के बच्चे कभी बंदूक के साये में पलते हैं, तो कभी शोषण के बाजारों में बेच दिए जाते हैं।
पलामू, गढ़वा, चाईबासा, गुमला, साहिबगंज या खूंटी—झारखंड का कोई इलाका इससे अछूता नहीं है। बच्चे स्कूल से गायब होते हैं, गांव से गायब होते हैं, और कुछ महीनों बाद उनकी सूचना दिल्ली, मुंबई, पंजाब या हरियाणा से आती है। मजदूरी, घरेलू काम, यौन शोषण और जबरन विवाह जैसी अमानवीय परिस्थितियों में उनका बचपन तिल-तिल कर खत्म होता है। सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह सब एक संगठित तरीके से होता है—स्थानीय दलाल, प्लेसमेंट एजेंसियां और बाहर के उपभोक्ता मिलकर एक ऐसा जाल बुनते हैं जिसमें बच्चों को फंसने में वक्त नहीं लगता।
सरकार के पास कानून भी हैं, योजनाएं भी हैं, बजट भी है। लेकिन गांवों में बैठी माताएं आज भी अपने बच्चों को ‘काम दिलाने’ के लिए किसी अजनबी के साथ भेज देती हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्हें यह समझाया ही नहीं गया कि बाहर की दुनिया कितनी क्रूर है। एक बार बच्चा दिल्ली या पंजाब पहुंच जाए, फिर उसे ढूंढना बहुत मुश्किल हो जाता है। कई बार तो वो कभी वापस लौटते ही नहीं। कई परिवारों में बच्चों की जगह अब उनकी तस्वीरें टंगी हैं, और मां-बाप केवल उम्मीद और इंतज़ार के सहारे ज़िंदगी काट रहे हैं।
हमारे स्कूलों में बाल अधिकारों की पढ़ाई नहीं होती, पंचायतों में निगरानी समितियां बस कागज़ों में बनी हैं, और पुलिस विभाग के पास अक्सर संसाधनों की भारी कमी होती है। कुछ जिलों में एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट बनी जरूर है, लेकिन न वहां प्रशिक्षित स्टाफ है, न स्थायी ढांचा। इस बीच, बच्चा गायब होता है, उसका बचपन कहीं गुम हो जाता है, और परिवार वर्षों तक इंतजार करता रह जाता है।
कानूनों की बात करें तो भारतीय दंड संहिता की धारा 370 और 370A, पॉक्सो एक्ट, बाल श्रम अधिनियम, आरटीई एक्ट—सब कुछ हमारे पास है। लेकिन इनका उपयोग तभी होगा जब इनकी जानकारी जनता तक पहुंचे और पुलिस इन्हें गंभीरता से लागू करे। अब वक्त आ गया है कि इन कानूनों को महज किताबों की शोभा नहीं, जमीनी अस्त्र बनाया जाए। सरकार को चाहिए कि वह इन कानूनों की समझ पंचायत स्तर तक लेकर जाए। ग्राम सभा में इन पर चर्चा हो, स्कूलों में शिक्षकों को इसकी जानकारी दी जाए, और पुलिस की जवाबदेही तय की जाए।
दुखद सच्चाई यह है कि जो बच्चे एक बार इस शोषण चक्र में फंसते हैं, उनका पूरी तरह पुनर्वास होना भी मुश्किल होता है। रेस्क्यू के बाद अगर सरकार उन्हें सही शिक्षा, चिकित्सा और आर्थिक सहायता नहीं देती, तो वे दोबारा उसी दलदल में लौट जाते हैं। कई बार तो जिन तस्करों ने उन्हें पहले बेचा, वे फिर से संपर्क कर लेते हैं। समाज के हाशिए पर जी रहे इन बच्चों के लिए दूसरा मौका मिलना भी किसी सपने से कम नहीं होता। लेकिन सवाल यह है कि क्या राज्य उनके उस सपने को पूरा करने के लिए तैयार है?
तस्करी का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि यह पीड़ित को केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक और सामाजिक रूप से भी तोड़ देती है। एक 14 साल की लड़की जो दिल्ली में एक व्यापारी के घर से रेस्क्यू की गई थी, उसने बताया कि उसे एक अलमारी में बंद रखा जाता था, और खाने को दो रोटियाँ मिलती थीं। उसने वाइपर और चाकू से पिटाई की शिकायत की थी। सोचिए, ऐसा जीवन जीकर लौटने वाले बच्चे हमारे समाज में किस मानसिक स्थिति में होंगे? उनका पुनर्वास केवल आश्रय देने से नहीं होगा, बल्कि उन्हें संपूर्ण सामाजिक सम्मान और संरक्षण देना होगा।
अब सवाल यह है कि आखिर और कितने नाबालिग बच्चों की चीखें हमारी संवेदनाओं को जगाएंगी? और कितने घरों में बच्चों की जगह केवल उनकी पुरानी तस्वीरें बचेंगी? बाल तस्करी के खिलाफ अब केवल अभियान नहीं, आंदोलन की जरूरत है। पंचायत स्तर से लेकर संसद तक, इस मुद्दे को उतनी ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए जितनी किसी युद्धकालीन संकट को दी जाती है। यह किसी एक जिले की समस्या नहीं, बल्कि पूरे झारखंड की जमीनी सच्चाई है।
समाज को भी अपनी भूमिका समझनी होगी। जब तक गांवों के शिक्षक, मुखिया, आशा कार्यकर्ता, और स्वयंसेवी संस्थाएं इस लड़ाई में शामिल नहीं होंगे, तब तक कोई योजना सफल नहीं हो सकती। स्कूलों को शरणालय बनाना होगा, जहां बच्चा केवल पढ़ने नहीं बल्कि सुरक्षित महसूस करने भी जाए। स्कूलों को यह समझना होगा कि उनका दायित्व केवल परीक्षा में नंबर दिलवाने तक नहीं, बल्कि बच्चों के जीवन की सुरक्षा तक फैला हुआ है।
बच्चों की सुरक्षा किसी एक विभाग का काम नहीं है, यह सरकार, समाज, न्यायपालिका और मीडिया, सबकी साझी जिम्मेदारी है। अब वक्त आ गया है कि हम इस संकट को राष्ट्रीय आपातकाल मानें और पूरी गंभीरता से कदम उठाएं। नहीं तो कल जब हम यह सोचेंगे कि हमने अपने बच्चों को क्या दिया, तब जवाब में केवल चुप्पी और पछतावा मिलेगा। हर रेस्क्यू की खबर के साथ हमारी अंतरात्मा यह सवाल पूछे कि यह बच्चा वहाँ पहुंचा ही क्यों? और हम इसे रोकने के लिए क्या कर रहे हैं?
झारखंड के भविष्य को बचाना है तो सबसे पहले उसके बच्चों को बचाना होगा। उनकी मुस्कान लौटानी होगी, उनका स्कूल लौटाना होगा, और सबसे ज़रूरी, उन्हें यह यकीन दिलाना होगा कि यह समाज, यह राज्य, उनका है। वरना एक खोया हुआ बचपन कभी जागती व्यवस्था में भरोसा नहीं कर पाएगा।