बेरमो में कोयला माफिया का बोलबाला—जांच कमजोर या जानबूझकर आंख बंद?

Editorial by Purnendu Sinha ‘Pushpesh’

झारखंड के बेरमो क्षेत्र में कोयले के अवैध उत्खनन का सिलसिला एक बार फिर सुर्खियों में है। बीते कुछ महीनों में लगातार छापेमारी और कोयले की भारी मात्रा में बरामदगी के बावजूद, अवैध खनन पर पूरी तरह से अंकुश नहीं लग सका है। स्थानीय लोगों का कहना है कि यह खेल नई सरकार के आगत के समय से ही जोर-शोर से चल रहा है और अब भी जारी है। कुछ आरोपों में यह तक कहा गया है कि इस अवैध कारोबार से होने वाली कमाई का हिस्सा झारखण्ड के उच्चतम पदों तक पहुंचता है, हालांकि इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है। लोगबाग व्यग्य के लहजे में कहते है – “संइयाँ भये कोतवाल, अब डर काहे का. …”!

हाल ही में पेटरवार, बोकारो थर्मल और जरीडीह क्षेत्रों में कई बार छापेमारी कर सैकड़ों टन अवैध कोयला जब्त किया गया। लेकिन सवाल यह है कि तस्करों की गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही और यह धंधा आखिर बार-बार कैसे शुरू हो जाता है? खदानें सील की जाती हैं, फिर कुछ ही दिनों में पुनः खोली जाती हैं और पुराने तरीकों से फिर से कोयले का उत्खनन और परिवहन शुरू हो जाता है।

स्थानीय पुलिस, खान निरीक्षण विभाग और CCL प्रबंधन के बीच समन्वय की कमी भी इस पूरे प्रकरण को जटिल बनाती है। अवैध उत्खनन के केंद्रों तक नियमित गश्ती और निगरानी की व्यवस्था बेहद कमजोर है। जबकि यह भी स्पष्ट है कि खनन में इस्तेमाल हो रहे भारी वाहनों, ट्रैक्टरों और साइकिलों की आवाजाही बिना प्रशासनिक सहमति या मौन स्वीकृति के संभव नहीं। प्रश्न उठते हैं कि अवैध उत्खनन बाधित करने के खुले बयानों के बाद भी, यह प्रक्रिया क्यों ठप नहीं हो रही? क्या तस्करी में स्थानीय अधिकारियों—पुलिस, CCL, और CISF की मिलीभगत है? जब सालों से अवैध खनन हो रहा है और करोड़ों का राजस्व चुराया जा रहा है, तब क्या सजगता या संरक्षण सक्रिय है?

झारखंड के बेरमो क्षेत्र में कोयले के अवैध उत्खनन की गूंज अब सिर्फ खदानों तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह पूरे प्रशासनिक तंत्र की कार्यप्रणाली पर सवाल बनकर उभर रही है। तमाम छापेमारी और कोयला जब्ती के बावजूद यह अवैध व्यापार दिन-ब-दिन और संगठित होता जा रहा है। स्थानीय निवासियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि यह कारोबार इतनी बेखौफी से हो रहा है मानो इसकी जानकारी और मौन सहमति स्थानीय पुलिस और प्रशासनिक इकाइयों को प्राप्त हो।

एक चौंकाने वाली स्थिति बोकारो जिले की सड़कों पर प्रतिदिन देखने को मिलती है, जहां सैकड़ो साइकिलों पर कोयला ढोया जाता है — वह भी लगभग चौबीसों घंटे। ये साइकिल सवार न केवल थानों के सामने से बेख़ौफ़ होकर गुजरते हैं, बल्कि हाईवे पर भी अवरोधहीन गति से चल रहे होते हैं। यह दृश्य किसी संगठित ‘छाया उद्योग’ जैसा प्रतीत होता है, जहां हर स्तर पर एक अलिखित व्यवस्था काम कर रही है। सवाल उठता है कि क्या थानों की आंखें बंद हैं, या फिर इन पर उच्च पदस्थ संरक्षण का हाथ है? बोकारो जैसे रणनीतिक जिले में इस तरह की खुली तस्करी पर उच्चाधिकारियों को तुरंत ध्यान देना होगा।

बेरमो, पेटरवार, बोकारो थर्मल और जरीडीह क्षेत्रों में समय-समय पर छापेमारी के बाद भी पुनः वही धंधा बदस्तूर चालू हो जाना बताता है कि अवैध खनन अब एक स्थापित ढांचे का रूप ले चुका है। कोल कंपनियों, पुलिस, खान निरीक्षण विभाग और स्थानीय प्रभावशाली व्यक्तियों के बीच यदि कोई प्रभावी समन्वय नहीं है, तो यह विफलता है; यदि समन्वय है, तो यह संलिप्तता है।

हालांकि, यह भी कहना उचित होगा कि प्रशासन ने पूरी तरह से आंखें नहीं मूंदी हैं। समय-समय पर छापेमारी, बैठकें और निर्देशों के ज़रिये रोक लगाने की कोशिश की जाती है, लेकिन यह प्रयास सतही और क्षणिक प्रतीत होते हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए एक दीर्घकालिक और समन्वित रणनीति की आवश्यकता है।

अवैध खनन पर प्रभावी नियंत्रण के लिए जिले स्तर पर एक स्थायी निगरानी तंत्र की स्थापना आवश्यक है। इसके लिए “माइनिंग मॉनिटरिंग टास्क फोर्स” का गठन किया जाना चाहिए, जिसमें प्रशासन, पुलिस, खान निरीक्षण विभाग और स्थानीय नागरिक प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए। यह टास्क फोर्स नियमित निगरानी और कार्रवाई के लिए उत्तरदायी हो।

तकनीकी निगरानी को सशक्त बनाने के लिए ड्रोन और सैटेलाइट इमेजिंग जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग जरूरी है। इनके माध्यम से संदिग्ध खनन क्षेत्रों की वास्तविक समय में निगरानी की जा सकती है, जिससे समय पर हस्तक्षेप संभव हो सकेगा।

स्थानीय जनप्रतिनिधियों की भागीदारी भी निगरानी व्यवस्था को अधिक प्रभावी बना सकती है। पंचायत स्तर पर खनन निगरानी समिति का गठन किया जाना चाहिए, जो यह सुनिश्चित करे कि ग्रामीण इलाकों में हो रहे किसी भी अवैध उत्खनन की सूचना त्वरित रूप से प्रशासन तक पहुँचे।

बेरमो क्षेत्र में कोयला आधारित रोजगार की अत्यधिक निर्भरता को देखते हुए वैकल्पिक रोजगार के अवसरों को बढ़ावा देना आवश्यक है। लघु उद्योगों, स्वरोजगार योजनाओं और कौशल विकास केंद्रों के माध्यम से स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षित कर रोजगार के अन्य साधनों से जोड़ा जा सकता है।

खनन व्यवस्था में पारदर्शिता लाना भी बेहद जरूरी है। कोल कंपनियों और ठेकेदारों के बीच होने वाले सभी समझौतों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, प्रत्येक खदान की अनुमति, उत्पादन और संबंधित दस्तावेजों को एक ऑनलाइन पोर्टल पर अपलोड किया जाना चाहिए ताकि जनता व निगरानी एजेंसियों को समुचित जानकारी उपलब्ध हो।

अवैध खनन के खिलाफ जनजागरूकता भी एक प्रमुख हथियार बन सकती है। इसके लिए समुदायों में जाकर अवैध खनन के पर्यावरणीय, कानूनी और सामाजिक दुष्परिणामों के प्रति लोगों को जागरूक किया जाना चाहिए, ताकि वे इस व्यवस्था के खिलाफ सक्रिय भागीदारी निभा सकें।

बेरमो का कोयला अब केवल झारखंड की आर्थिक संपत्ति नहीं, बल्कि राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक प्रणाली की परीक्षा बन चुका है। यदि इस बार प्रशासन और राज्य सरकार मिलकर पारदर्शिता, तकनीकी सहायता और जनसहभागिता के साथ काम करें, तो अवश्य संभव है कि यह क्षेत्र एक दिन अवैधता के अंधकार से बाहर निकलकर विकास की रोशनी की ओर अग्रसर हो। अब यह कोई विकल्प नहीं, बल्कि समय की मांग बन चुका है।

और हां, अगर उपर्युक्त सुझावों से भी बात न बने, तो क्यों न बेरमो के इस संगठित कोयला उद्योग को एक “मॉडल शैडो इकोनॉमी ज़ोन” घोषित कर दिया जाए? आखिरकार, वर्षों से बिना किसी सरकारी प्रोत्साहन, बिना किसी कौशल विकास योजना के, यहां के लोग इतनी मेहनत से अंधेरे में भी काला हीरा खोज निकालते हैं — वो भी साइकिल से, थानों के सामने से बेधड़क गुजरते हुए! सरकार चाहे तो इन्हें “गुप्त संसाधन संचालक” की उपाधि दे सकती है और थाना प्रभारियों को “मानद संरक्षक”। कोल माफिया को CSR (Coal Smuggling Responsibility) की श्रेणी में रखकर इनसे इलाके में सड़क बनवाना, अनैतिक स्किल स्कूल खोलवाना और जनता को काली दर पर कोयला वितरण करवाना भी तय किया जा सकता है — वैसे भी, वो तो पहले से कर ही रहे हैं, बिना रसीद के।

कुल मिलाकर, प्रशासन चाहे तो बेरमो की इस अद्भुत साइकिल-प्रेरित काली अर्थव्यवस्था को UNESCO की “अप्रत्यक्ष धरोहर” घोषित करवाने की पहल भी कर सकता है, आपादमस्तक ‘हिस्सा’ पहुंचने के लिए एक स्पेशल बैंक खोल सकता है जहाँ से सिंगल क्लीक कर सबको संतुष्ट कर सकता है. ..  — क्योंकि ऐसी पारदर्शी अंधेरी व्यवस्था, ऐसी सुनियोजित अनदेखी, और ऐसा बेलौस साहस, दुनिया के किसी और कोयलांचल में मिलना कठिन है!

बाक़ी… “संइयाँ भये कोतवाल, अब डर काहे का…” — ये पंक्ति अब बस मुहावरा नहीं, प्रशासनिक दर्शन बन चुकी है।

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