सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
जब हम राष्ट्र और समाज की रक्षा की बात करते हैं, तो हमारी कल्पना अक्सर सीमाओं पर तैनात जवानों, युद्धक विमानों या मिसाइलों की ओर चली जाती है। किंतु एक राष्ट्र को स्थायित्व, सामर्थ्य और एकता देने वाले स्तंभ केवल सैन्यशक्ति या राजनीतिक नेतृत्व नहीं होते — समाज की रचना करने वाले आम नागरिक, उनके विचार और उनका आचरण भी राष्ट्रनिर्माण की मूल इकाइयों में सम्मिलित हैं। और जब समाज का कोई प्रतिष्ठित, प्रेरणादायक व्यक्ति राष्ट्रहित में एक छोटा सा भी कदम उठाता है, तो वह पूरे देश के लिए उदाहरण बन जाता है।
ऐसा ही एक कदम उठाया है भारत के लोकप्रिय क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने। राजनीति से दूर रहकर भी उन्होंने जनजातीय क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका निभाने का जो संकल्प लिया है, वह बताता है कि सामाजिक उत्तरदायित्व निभाना किसी पद, पार्टी या मंच की मोहताज चीज नहीं। दंतेवाड़ा जैसे अति संवेदनशील क्षेत्र में, जहां बरसों से माओवाद अपनी जड़ें जमाए बैठा है, वहां पर सचिन की संस्था द्वारा बच्चों के लिए 50 खेल मैदान विकसित करना न केवल एक प्रेरणादायी कार्य है, बल्कि एक दूरगामी रणनीति का हिस्सा भी है। यह पहल उस सोच का परिणाम है, जो मानती है कि समाज को हिंसा और उग्रवाद से निकालने का एक रास्ता खेल, शिक्षा और संस्कारों से होकर जाता है।
माओवाद आज सिर्फ एक राजनीतिक विचारधारा नहीं, बल्कि एक अवैध और हिंसक आंदोलन का रूप ले चुका है, जो जनजातीय समाज के भोलेपन और शासन की विफलताओं का दोहन करता है। यह आंदोलन जहां एक ओर सरकार विरोधी हिंसा को वैचारिक समर्थन देता है, वहीं दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय स्वार्थी ताकतों से पोषित होता है। इन क्षेत्रों की खनिज संपदा, जो भारत के औद्योगिक भविष्य की कुंजी है, उसी का दोहन रोकने के लिए माओवाद को प्रायोजित किया जाता है। यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि सरकारी दस्तावेजों और राज्यों के अधिकारियों द्वारा बार-बार व्यक्त की गई चिंता है।
जनजातीय क्षेत्रों में माओवादियों की पकड़ तोड़ने के लिए सरकारें लंबे समय से योजनाएं बना रही हैं। सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं देने के प्रयास हो रहे हैं। परंतु ये प्रयास तब तक अधूरे हैं, जब तक समाज के सम्मानित नागरिक इन क्षेत्रों की मूल समस्याओं को समझकर उनके समाधान में भागीदार न बनें। सचिन तेंदुलकर का खेल के माध्यम से बच्चों को जोड़ने का निर्णय इसी श्रृंखला का महत्वपूर्ण मोड़ है। यह बच्चों के मन में उमंग और अनुशासन दोनों को विकसित करेगा, जिससे एक नई पीढ़ी को वैचारिक आतंकवाद से बचाया जा सकेगा।
यह विचार केवल सचिन तेंदुलकर या किसी संस्था की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए। समाज में हर वह व्यक्ति जो शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य या विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में सक्षम है, उसे चाहिए कि वह अपनी ऊर्जा का एक अंश राष्ट्र निर्माण में लगाए। यह आचरण से राष्ट्र सेवा की अवधारणा है — जो प्रचार से नहीं, उदाहरण से चलती है।
देश के सामने जो संकट खड़े हैं, वे केवल सीमा पार से आने वाले नहीं। हमारे भीतर पल रहे विघटनकारी तत्व, सामाजिक विषमता, सांस्कृतिक उपेक्षा और शिक्षा की उपेक्षा भी राष्ट्र के लिए चुनौती बन चुकी हैं। यह भी एक सच्चाई है कि जहां समाज जागरूक और संगठित होता है, वहां धर्मांतरण, माओवाद और अलगाववादी प्रवृत्तियों के लिए जगह नहीं बचती। जनजातीय क्षेत्रों में कार्य कर रही संस्थाएं जब शिक्षा, संस्कार और संस्कृति के माध्यम से समाज को पुनर्जीवित करती हैं, तो वहां राष्ट्र की जड़ें गहरी होती हैं।
धर्म केवल रीति-रिवाज या भोजन की पद्धति तक सीमित नहीं है। धर्म एक आचरण है — जिसमें सत्य, करुणा, शुचिता और तपस सम्मिलित हैं। जब हम अपने सामाजिक कार्यों में इन चार सिद्धांतों को साथ लेकर चलते हैं, तो वही धर्म राष्ट्र की शक्ति बनता है। यही विचार मोहन भागवत के वक्तव्यों में बार-बार सामने आता है, जो यह स्पष्ट करते हैं कि धर्म को पूजा-पाठ तक सीमित करना उसे कमजोर करना है।
आज जब धर्मांतरण के नाम पर देश के विभिन्न क्षेत्रों में असंतुलन फैलाया जा रहा है, तो उस समय समाज का जागरूक होना अत्यंत आवश्यक है। विश्व हिन्दू परिषद, संघ और अन्य संगठनों द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय में पुरोहितों को प्रशिक्षण देने का जो अभियान चलाया गया है, वह सिर्फ कर्मकांड नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण है। जब समाज के भीतर से ही धर्म का नेतृत्व उभरेगा, तब धर्मांतरण की प्रेरणाएं स्वतः दम तोड़ेंगी।
इसलिए यह जरूरी है कि हम अच्छे कार्य और आवश्यक कार्य में अंतर करें। अकेले व्यक्ति का प्रखर होना अच्छी बात है, लेकिन समाज का संगठित होना आवश्यक है। यही विचार राष्ट्र के भविष्य को सुरक्षित करता है। सचिन तेंदुलकर ने अपने प्रयास से यह दिखाया कि एक सामान्य नागरिक भी असामान्य काम कर सकता है — बशर्ते उसमें राष्ट्र के प्रति संवेदनशीलता हो।
देशभक्ति केवल एक भावनात्मक नारा नहीं है। यह जीवन की शैली है। यह तब प्रकट होती है जब हम समाज को अपना परिवार मानते हैं और उसके संकट को अपना संकट समझते हैं। जब जनजातीय बच्चों को खेल के मैदान मिलते हैं, तो हम केवल फुटबॉल या कबड्डी नहीं दे रहे होते — हम उन्हें एक बेहतर जीवन की ओर प्रेरित कर रहे होते हैं। हम उनके भीतर छिपे आत्मविश्वास को जगा रहे होते हैं, जिससे वे हथियार नहीं, सपनों को चुनें।
यह सोच ही भारत को महान बनाएगी। और इस सोच में जितने ज्यादा लोग जुड़ेंगे, भारत उतना ही संगठित और समृद्ध होगा।