सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
बोकारो स्टील सिटी में लंबे समय से विस्थापितों और स्थानीय निवासियों के बीच रोजगार, पुनर्वास और अधिकारों को लेकर चल रहा संघर्ष झारखंड में औद्योगिक विकास और सामाजिक समरसता के बीच की गहरी खाई का प्रतीक बन गया था। ऐसे में 21 जुलाई को मुख्य सचिव अलका तिवारी द्वारा आयोजित उच्चस्तरीय बैठक को केवल एक प्रशासनिक कवायद मानना एक भूल होगी। यह बैठक न सिर्फ एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक प्रयास है, बल्कि यह झारखंड की विकास यात्रा को अधिक न्यायपूर्ण, समावेशी और मानवीय दिशा में मोड़ने की एक ईमानदार पहल के रूप में देखी जानी चाहिए।
इस बैठक की पृष्ठभूमि में अप्रैल में हुआ उग्र आंदोलन, लाठीचार्ज और 26 वर्षीय प्रेम महतो की दर्दनाक मृत्यु जैसी घटनाएं हैं, जिन्होंने प्रशासन और सेल दोनों को यह सोचने पर मजबूर किया कि केवल उद्योग लगाने भर से क्षेत्रीय विकास और सामाजिक शांति सुनिश्चित नहीं की जा सकती। किसी भी क्षेत्र का विकास तभी टिकाऊ होता है जब उसमें वहां के लोगों की भागीदारी, भावना और भविष्य सुरक्षित हो। मुख्य सचिव अलका तिवारी ने इस बैठक के माध्यम से यही संदेश देने का प्रयास किया कि राज्य सरकार केवल विकास के आंकड़ों पर नहीं, बल्कि विकास के असर पर भी ध्यान दे रही है।
बैठक में मौजूद सभी पक्षों—सेल के चेयरमैन अमरेंद्र प्रकाश, उपायुक्त अजय नाथ झा, वन सचिव अबू बकर सिद्दीकी और अन्य विभागीय सचिवों—की भागीदारी यह दर्शाती है कि अब इस विषय को टुकड़ों में नहीं, बल्कि एक समग्र दृष्टिकोण से हल करने का प्रयास हो रहा है। मुख्य सचिव द्वारा यह निर्देश कि स्टील प्लांट स्थानीय युवाओं को प्राथमिकता दे, केवल रोजगार की बात नहीं है, यह सामाजिक न्याय और क्षेत्रीय समावेशन का संकेत है।
बैठक के दौरान उठाए गए प्रस्ताव—चास की नौ पंचायतों का पुनर्गठन, पुनर्वास से वंचित 20 गांवों को अधिकार देना, अनुपयोगी 756.94 एकड़ वन भूमि को वन विभाग को वापस करना—इन सभी निर्णयों में यह स्पष्ट झलकता है कि राज्य सरकार अब जमीन के टुकड़ों को सिर्फ नक्शे में नहीं देख रही, बल्कि वहां बसने वाले लोगों की उम्मीदों और अस्मिता को भी मान्यता देने लगी है।
बोकारो में प्रस्तावित 20 हजार करोड़ रुपये के विस्तार योजना को लेकर चेयरमैन अमरेंद्र प्रकाश ने जो बातें रखीं, वे न केवल भविष्य के आर्थिक विकास की तस्वीर पेश करती हैं, बल्कि इस विकास में स्थानीय लोगों को सहभागी बनाने का इरादा भी स्पष्ट करती हैं। यह तथ्य कि एक व्यक्ति को नौकरी मिलने पर सात अन्य को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रोजगार मिलता है, यह केवल एक आँकड़ा नहीं बल्कि नीति निर्माताओं के लिए एक चेतावनी भी है कि किसी एक नियुक्ति का असर कितने जीवनों पर होता है। यदि इन नियुक्तियों में विस्थापितों और स्थानीय निवासियों को प्राथमिकता दी जाती है, तो यह केवल रोजगार नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन को मजबूत करने का उपाय होगा।
बात गरगा डैम की हो या अमृतसर-कोलकाता औद्योगिक कॉरिडोर की—मुख्य सचिव ने हर बिंदु पर स्थानीय विकास और पर्यटन की संभावनाओं को खोजने की कोशिश की। यह सकारात्मक संकेत है कि झारखंड अब केवल कोयला, लोहा और स्टील के इर्द-गिर्द सिमटने वाला राज्य नहीं रह गया है, बल्कि अब वह स्थायी विकास, रोजगार, पर्यटन और सामाजिक समरसता के नए अध्याय की ओर बढ़ रहा है।
हालांकि इन सारी सकारात्मक पहलुओं के बीच कुछ वास्तविक चुनौतियां भी हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सबसे पहली चुनौती है — विकास के वादों का समय पर और ईमानदारी से क्रियान्वयन। झारखंड की जनता वादों से थक चुकी है। विस्थापितों को मुआवजा और पुनर्वास के आश्वासन दशकों से मिलते आए हैं। लेकिन ज़मीनी हकीकत में इन वादों का क्रियान्वयन अक्सर ढीला, अपारदर्शी और असंवेदनशील रहा है। इसलिए वर्तमान बैठक के निष्कर्षों को कागजों से निकालकर जमीनी स्तर पर उतारने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक तत्परता दोनों की आवश्यकता होगी।
दूसरी चुनौती है — सेल और स्थानीय प्रशासन के बीच विश्वास की बहाली। यह विश्वास तभी बहाल होगा जब विस्थापितों को यह महसूस हो कि उनका हक छीना नहीं गया, बल्कि उन्हें नए अवसर दिए जा रहे हैं। पंचायतों के पुनर्गठन और पुनर्वास के प्रस्ताव यदि लागू होते हैं तो यह झारखंड में प्रशासनिक पुनर्संरचना का भी एक सकारात्मक उदाहरण बन सकता है, जिससे अन्य औद्योगिक जिलों में भी प्रेरणा ली जा सकेगी।
तीसरी अहम बात यह है कि बोकारो को टॉप टेन या टॉप वन शहर बनाने की जो बात बैठक में कही गई, वह तभी साकार हो सकती है जब शहर का विकास सिर्फ बुनियादी ढांचे तक सीमित न रहे, बल्कि सामाजिक विकास, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और नागरिक सुविधाओं में भी समान प्रगति हो। अतिक्रमण एक समस्या है, लेकिन इसका समाधान केवल हटाने से नहीं, बल्कि वैकल्पिक पुनर्वास और पारदर्शी शहरी योजना से ही संभव है।
यह भी सराहनीय है कि बैठक में वन विभाग और सेल के बीच तालमेल से जमीन सीमांकन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने पर सहमति बनी। इस प्रकार के सहमति आधारित निर्णय राज्य में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन की नई नीति की नींव रख सकते हैं। अगर वनों की सुरक्षा और विस्थापितों का पुनर्वास एक साथ हो सकता है, तो यह पूरे देश के लिए एक मॉडल बन सकता है।
इस पूरी प्रक्रिया में एक चीज़ और जरूरी है — सार्वजनिक संवाद और पारदर्शिता। राज्य सरकार और सेल को चाहिए कि वे इस पूरी प्रक्रिया की नियमित जानकारी मीडिया और आम जनता के साथ साझा करें। इससे लोगों में भरोसा बनेगा और अफवाहों व असंतोष की संभावना कम होगी। साथ ही इस प्रक्रिया की निगरानी के लिए कोई स्वतंत्र समिति या सामाजिक संगठन को भी जोड़ा जाना चाहिए ताकि न्यायिकता और पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके।
निष्कर्षतः, मुख्य सचिव अलका तिवारी की यह पहल प्रशासनिक दृष्टि से जितनी महत्वपूर्ण है, उससे कहीं अधिक यह सामाजिक और नैतिक दृष्टि से प्रेरणादायी है। झारखंड जैसे राज्य में जहां विकास और विस्थापन की कहानी एक साथ चलती रही है, वहां यदि बोकारो में यह नया मॉडल सफल होता है, तो यह पूरे राज्य की दिशा और दशा बदल सकता है। यह न केवल प्रशासन के विजन और संवेदनशीलता का प्रमाण होगा, बल्कि यह उन हजारों विस्थापितों के जीवन में आशा की किरण बनकर उभरेगा, जिन्हें अब तक केवल विकास की कीमत चुकाने वाला माना जाता रहा है।
बोकारो से निकली यह पहल झारखंड को सामाजिक न्याय आधारित औद्योगिक विकास के मॉडल की ओर ले जा सकती है। अब ज़रूरत है कि इस पहल को राजनीतिक लाभ से ऊपर उठाकर नीति, संवेदना और सेवा का रूप दिया जाए। तभी झारखंड एक ऐसा राज्य बन पाएगा, जहां स्टील के साथ-साथ स्थायित्व, समावेश और सम्मान की भी पहचान होगी।