– पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
भारतीय राजनीति में विवाद, आरोप-प्रत्यारोप और वैचारिक टकराव कोई नई बात नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह सब सामान्य भी माना जाता है क्योंकि विभिन्न दृष्टिकोणों की बहस ही लोकतंत्र को जीवंत बनाती है। लेकिन जब यह बहस लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाने लगे और किसी बड़े राजनीतिक दल का शीर्ष नेतृत्व जनता, विशेषकर युवाओं को, इस दिशा में उकसाने लगे कि चुनाव और संवैधानिक संस्थाएँ भरोसे के काबिल नहीं रहीं, तब यह केवल राजनीतिक विमर्श का हिस्सा नहीं रह जाता। यह स्थिति लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने वाली प्रवृत्ति का संकेत देती है। वर्तमान संदर्भ में कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी पर यही आरोप बार-बार लगते रहे हैं।
हाल के वर्षों में राहुल गांधी के भाषणों और नारों में एक पैटर्न दिखाई देता है। हर चुनावी हार के बाद वे ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करते हैं, चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करते हैं और “सिस्टम चोरी” जैसे नारे देते हैं। ताज़ा आरोप यह है कि उनका मक़सद युवाओं, ख़ासकर नई पीढ़ी को, लोकतांत्रिक भागीदारी की मूल धारा से हटाकर सड़क पर आंदोलन की राजनीति की ओर धकेलना है। यह तुलना नेपाल और श्रीलंका के हालात से की जा रही है, जहाँ युवाओं के असंतोष को सुनियोजित तरीके से भड़काया गया और परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक व्यवस्था गहरे संकट में आ गई। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी सचमुच इस तरह के किसी मॉडल की ओर बढ़ रहे हैं या फिर यह केवल उनकी हताशा से उपजे राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप हैं।
नेपाल और श्रीलंका के उदाहरण यूँ ही नहीं दिए जाते। नेपाल में युवाओं को बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता के मुद्दों पर संगठित कर सड़कों पर उतारा गया। उन्हें यह विश्वास दिलाया गया कि केवल आंदोलन और विद्रोह ही बदलाव ला सकते हैं। इस प्रक्रिया ने वहाँ की लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव हिला दी। हिंसा और अराजकता ने उस देश की राजनीति को लम्बे समय तक अस्थिर बनाए रखा। इसी तरह श्रीलंका में आर्थिक संकट और सत्ता की नीतिगत विफलताओं ने युवाओं को आंदोलित किया। परिणामस्वरूप सत्ताधारी परिवार को सत्ता छोड़नी पड़ी, लेकिन देश आज भी उस अराजकता की भारी कीमत चुका रहा है।
इन उदाहरणों की तुलना जब भारत के संदर्भ में की जाती है, तो एक चिंता सामने आती है। राहुल गांधी बार-बार जिस तरह से “वोट चोरी” और “सिस्टम भ्रष्ट” जैसी भाषा का प्रयोग करते हैं, वह युवाओं में निराशा का माहौल पैदा करता है। राजनीति में असफलता और लगातार हार से उपजी हताशा यदि ऐसी भाषा में सामने आए, तो इसका असर केवल चुनावी राजनीति पर नहीं बल्कि लोकतंत्र की मूलभूत अवधारणा पर भी पड़ता है। एक बड़ा सवाल यही है कि क्या यह भाषा महज़ भावनात्मक प्रतिक्रिया है या सचमुच युवाओं को आंदोलन और विद्रोह की राह पर ले जाने की रणनीति है।
भारतीय राजनीति में युवाओं को आंदोलनों का चेहरा बनाना कोई नई बात नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर जेपी आंदोलन और मंडल आंदोलन तक, युवाओं ने हमेशा निर्णायक भूमिका निभाई है। लेकिन इन आंदोलनों का उद्देश्य राष्ट्रनिर्माण और सामाजिक सुधार रहा। अंतर बस यही है कि आज जिस तरह युवाओं को भड़काने की कोशिश हो रही है, उसमें कोई ठोस और सकारात्मक एजेंडा नहीं दिखता। “वोट चोरी” जैसे नारे रचनात्मक राजनीति का संकेत नहीं बल्कि व्यक्तिगत असफलताओं का बोझ युवाओं पर डालने जैसा प्रतीत होते हैं।
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताक़त उसकी संस्थाएँ हैं। संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग और सेना पर देश को गर्व है। इन पर सवाल उठाना गलत नहीं है, लेकिन बार-बार बिना ठोस प्रमाण संस्थाओं को कठघरे में खड़ा करना लोकतंत्र के प्रति अविश्वास का माहौल पैदा करता है। राहुल गांधी की शैली यही रही है कि हर हार के बाद वे प्रणाली को ही दोषी ठहरा देते हैं। यह प्रवृत्ति युवाओं को यह संदेश देती है कि लोकतांत्रिक भागीदारी बेकार है और केवल सड़क पर उतरकर ही बदलाव सम्भव है।
इस विमर्श का एक और गंभीर पक्ष है। जब राहुल गांधी बार-बार विदेशी उदाहरण देते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या अनजाने में वे उन ताक़तों की भाषा बोल रहे हैं जो भारत को अस्थिर करना चाहती हैं। नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका की अस्थिर राजनीति में बाहरी शक्तियों की भूमिका पर अक्सर चर्चा होती रही है। कुछ वैश्विक ताक़तें भारत जैसे उभरते हुए राष्ट्र को अस्थिर करने में रुचि रख सकती हैं। ऐसे में कांग्रेस का नैरेटिव अगर उन्हीं विचारों से मेल खाता दिखे तो यह महज़ राजनीतिक रणनीति न होकर राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न भी बन जाता है।
यहाँ यह स्पष्ट करना भी ज़रूरी है कि भारत नेपाल या श्रीलंका नहीं है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जिसकी संस्थाएँ मज़बूत हैं और जिसकी जनता लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में गहरा विश्वास रखती है। भारत में सत्ता परिवर्तन हमेशा चुनाव और संवैधानिक प्रक्रियाओं से ही हुआ है। चाहे कितनी भी कठिन राजनीतिक परिस्थितियाँ रही हों, भारतीय मतदाताओं ने कभी लोकतांत्रिक रास्ता नहीं छोड़ा। इसीलिए राहुल गांधी चाहे जितनी बार “सिस्टम चोरी” का नारा दें, अंततः भारत की जनता अपने विवेक से तय करेगी कि किसे सत्ता सौंपनी है।
आज का भारतीय युवा भी अतीत से अलग सोच रखता है। वह तकनीक, स्टार्टअप्स, उद्यमिता, सेना, शिक्षा और वैश्विक मंचों पर देश को आगे बढ़ाने की दिशा में ऊर्जा लगाना चाहता है। यदि उसे बार-बार यह बताया जाए कि “सिस्टम भ्रष्ट है, चुनाव बेमानी हैं, संसद का कोई मूल्य नहीं है” तो उसकी ऊर्जा नकारात्मक दिशा में मुड़ सकती है। राजनीति की ज़िम्मेदारी यह है कि वह युवाओं को रचनात्मक और सकारात्मक राह दिखाए, न कि अपनी असफलताओं का बोझ उनके कंधों पर डाले।
राहुल गांधी को यह समझना होगा कि राजनीति केवल चुनाव जीतने का नाम नहीं है, बल्कि यह लोकतांत्रिक संस्थाओं में विश्वास जगाने और युवाओं को देश की प्रगति में सहभागी बनाने की प्रक्रिया है। यदि वे बार-बार संस्थाओं को बदनाम करते हैं और युवाओं को आंदोलन की राह पर धकेलते हैं, तो वे न केवल अपनी पार्टी की संभावनाओं को कमजोर कर रहे हैं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों पर भी प्रहार कर रहे हैं।
निष्कर्ष यही है कि भारत का लोकतंत्र किसी भी “नेपाल मॉडल” या “श्रीलंका मॉडल” की ओर नहीं जाएगा। राहुल गांधी के आरोप और नारों से क्षणिक भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है, लेकिन भारतीय मतदाता और युवा पीढ़ी इतनी परिपक्व है कि वे अराजकता के बजाय राष्ट्रनिर्माण का रास्ता चुनेंगे। लोकतंत्र में आलोचना आवश्यक है, परंतु यह आलोचना प्रमाण, वैकल्पिक नीति और रचनात्मक दृष्टि के साथ होनी चाहिए। केवल हताशा और निराशा से भरे नारे देश की राजनीति और युवाओं के भविष्य को भटका सकते हैं।
भारतीय राजनीति के इस मोड़ पर युवाओं के सामने भी एक बड़ी जिम्मेदारी है। उन्हें तय करना होगा कि वे सड़कों की अराजकता का हिस्सा बनना चाहते हैं या भारत के निर्माण की ऐतिहासिक यात्रा में सहभागी बनना चाहते हैं। राहुल गांधी के लिए भी यही चुनौती है कि वे स्वयं को हताशा की भाषा से निकालकर रचनात्मक राजनीति की ओर ले जाएँ। अन्यथा वे इतिहास में ऐसे नेता के रूप में दर्ज होंगे, जिसने युवाओं को अवसर देने के बजाय उन्हें निराशा और भटकाव की राह पर धकेल दिया।