शिव पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ, विदाई की बेला आगई। माता मैना अपनी पुत्री को बिलख बिलख कर विदा कर रहीं हैं और पुत्री को सुन्दर शिक्षा दे रहीं हैं, स्त्री धर्म सिखा रहीं हैं। कहतीं हैं कि पती के चरणों की सेवा हीं तुम्हारा एकमात्र धर्म है। सास ससुर की मन लगा कर सेवा करना (यहाँ प्रश्न उठता है कि शिव जी के तो माता पिता हैं नहीं फिर पार्वती जी के सास ससुर कहाँ से होगें ? तो मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि पार्वती जी के सास ससुर वनदेवी और वनदेवता हैं)। बिलाप करते हुए माता कहतीं हैं कि विधाता ने स्त्री जाति को क्यों रचा जब पुत्री को दूसरे के घर हीं भेजना था? पुत्री को आशीर्वाद दे रहीं हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल अमर रहे। इस प्रकार माता मैना ने पार्वती को शिव जी के साथ विदा किया। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—–
मैया विदा करे बेटी गौरा को,
अँखियन से बहे जलधार रे ।
जाहु पिया घर तजि ममता को,
पती के चरन हीं अधार रे ।
सास ससुर के सेवा तु करिहो,
नैहर के सुधिया बिसार रे ।
मैया विदा करे बेटी गौरा को….
बेटी पियारी जतन से रखलौं,
अँखिया के पुतली बनाइ रे ।
तिरीया जनम काहे दिन्हीं विधाता,
जो भेजहीं के रहे पर द्वार रे ।
मैया विदा करे बेटी गौरा को….
जाहू लली घर आवत रहियो,
मैया को दिहो ना विसार रे ।
अमर सुहाग रहे तोर बेटी,
मैया के इहे आशीर्वाद रे ।
मैया विदा करे बेटी गौरा को….
रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र