रे मनुवाँ हरि चरनन के लोभी …….ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

मन को भँवरा और प्रभु के चरण को कमल से उपमा दी गई है । जिस प्रकार भँवरा कमल पर लुभाए रहता है उसी प्रकार मन प्रभु के चरण में लुभाए रहता है । इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—

रे मनुवाँ हरि चरनन के लोभी ।
जेहि चरनन के निश दिन सेवत ,
सुर नर तपसी जोगी ।
रे मनुवाँ हरि चरनन…………
जेहि चरनन में नेह लगा के ,
तरि गए विषयी भोगी ।
रे मनुवाँ हरि चरनन………….
सुमिरि चरन जेहि सुखी हो गए ,
जनम जनम के रोगी ।
रे मनुवाँ हरि चरनन…………
जेहि चरनन सुमिरत मोरे मनुवाँ ,
उसकी कृपा कब होगी ।
रे मनुवाँ हरि चरनन………..

 

रचनाकार

  ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र