लक्ष्मण जी के समान कोई दूसरा बड़भागी नहीं है। सारे जगत से नाता तोड़ कर प्रभु श्रीराम के पीछे वन को चल दिए। श्रीराम चरण के अनुरागी भला कहाँ रुकने वाले थे? वन में छल त्याग कर प्रभु की सेवा करते हैं, उनका एक मात्र धर्म श्री सीताराम जी के चरण की सेवा हीं है। जिस प्रकार वन में प्रभु सुख पावें वही उपाय करते हैं। इसी प्रसंग पर पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना:—–
लखन सम नहिं दूजा बड़भागी ।
सकल जगत से नाता तोड़ी,
राम चरन अनुरागी ।
लखन सम नहिं दूजा………
गए बिपिन सिय राम के पीछे,
सुख सम्पति सब त्यागी ।
लखन सम नहिं दूजा………
सहे बिपिन हिम आतप बाता
मन हरि चरनन लागी ।
लखन सम नहिं दूजा………
जेहि बिधि राम न पावैं कलेसू,
करत जतन छल त्यागी ।
लखन सम नहिं दूजा………
सहे कठिन ब्रह्मास्त्र हृदय बिच,
सिया राम हित लागी ।
लखन सम नहिं दूजा………
रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र