मोह जनित अज्ञान ते, मानव मन कलुषाय ।
मत्सरता की आग में, पल पल जरता जाय ।।
मानव मन में मैल जमी है, उर अँधियारा छाय ।
कलुषित मन को भजन न भावै, हरिगुन कैसे गाय ।।
‘ब्रह्मेश्वर’ यह रीति कली की, सबको रह भरमाय ।
छूटे मत्सर मोह तब, हरि किरपा जब पाय ।।
रचनाकार :
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र