जब श्री रघुबीर जी मन मन्दिर में विराजमान होगें तो फिर किस लिए मन्दिर मन्दिर तीर्थ तीर्थ भटकना ? हे प्राणी तू मन को ही मन्दिर बना और उसी में प्रभु को विराजित कर फिर तुम्हें भटकना नहीं पड़ेगा। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :—–
बिराजो मन मन्दिर रघुबीर ।
नहिं मोहे जाना काशी प्रयागा ,
नहिं मोहे सुरसरि तीर ।
बिराजो मन मन्दिर………..
नहिं मोहे जाना गोकुल मथुरा ,
नहिं मोहे जमुना तीर ।
बिराजो मन मन्दिर………..
नहिं मोहे जाना अवध पावनी ,
नहिं मोहे सरजू तीर ।
बिराजो मन मन्दिर………..
जब रघुबीर बसहिं मन माँहीं ,
तो काहे को तीरथ तीर ।
बिराजो मन मन्दिर………..
रचनाकार :
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र