पर्यावरण पुकार रहा —-
अपनी हीं करनी से मानव,
प्रकृति प्रकोप है झेल रहा ।
समझ नहीं आता है उसको,
खुला मौत से खेल रहा ।
जंगल काट के नगर बसाया,
नदियों का जल बाँध रहा ।
क्रुद्ध हुई जब नदियाँ तो,
त्राहि त्राहि पुकार रहा ।
पर्वत के सीने को चीर कर,
बुना सड़क का जाल यहाँ ।
चेतो मानव चेतो अब भी,
पर्यावरण पुकार रहा ।
रचनाकार :
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र