करम गति टारे नाहिं टरे ………..ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

कर्म की गति टाले नहीं टल सकती। प्रभु बिरले किसी को मनुष्य शरीर देते हैं पर इस संसार में आकर मनुष्य प्रभु को भूल कर बुरे कर्मों में रत हो जाता है जिसका परिणाम यह होता है कि उसे अनेक दुख कष्ट भोगने पड़ते हैं और जब अन्त समय आता है तो अपनी करनी पर पछतावा होता है। यही कर्मों का फल है जिसे कोई मिटा नहीं सकता भोगना हीं पड़ता है। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :–

करम गति टारे नाहिं टरे ।
पाया नर तन पावन बन्दे ,
जनम क्यूँ ब्यर्थ करे ।
हरि को भूल प्रेत को भजता ,
काहे ना नरक परे ।
करम गति टारे नाहिं………
करे कपट चतुराई रे बन्दे ,
हरि से नाहिं डरे ।
पर धन पर तिय डीठ लगायो ,
केहि बिधि भवहिं तरे ।
करम गति टारे नाहिं………
दारुण दुख ब्याधी सब सहता ,
फिर भी न आँख खुले ।
अंत समय जब आए मूरख ,
तब पछतात मरे ।
करम गति टारे नाहिं………
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रचनाकार


   ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र