इस मानव शरीर को चुनरी की संज्ञा दी गई है। यह चुनरी जब इस संसार में आती है तो बिल्कुल स्वच्छ और निर्मल रहती है जब वह गुरु के घर जाती है तो गुरु उसे अपनी शिक्षा के द्वारा उसमें और निखार ला देता है और जब शरीर रुपी चुनरी घर लौटती है तो गुरु के वचन को भूल जाती है, ममता मोह में उलझ कर प्रभु को भूल जाती है, सुन्दर कर्मों को छोड़ कर बुरे कर्मों में रत हो जाती है और जब अंत समय आता है फिर पछतावा के सिवा कुछ नहीं रह जाता है। यह दुर्लभ मनुष्य शरीर इसलिए मिलता कि इस पृथ्वी पर आकर सुन्दर कर्म किया जाय, भगवान का भजन किया जाय। बिना इसके कभी भी सद्गति नहीं मिलेगी इसलिए रे मूढ़ मानव सुन्दर कर्म करो, प्रभु का भजन करो। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना:—-
चुनरी का रंग पाका, हमार प्रभु!
जब रे चुनरिया जग में आई,
रंगरे के घर राँगन जाई,
रंगरे ने रंग दियो साँचा, हमार प्रभु!
चुनरी का रंग पाका………..
लौट के चुनरी घर को आई,
ममता मोह में रहो भुलाई,
भजन में मन नहीं राचा, हमार प्रभु!
चुनरी का रंग पाका………..
परधन परतिय मन को भाई,
कोरि चुनरिया दाग लगाई,
चुनरी को कर दियो काँचा, हमार प्रभु!
चुनरी का रंग पाका………..
अंत समय जबहीं नियराई,
सिर धुनि धुनि करिके पछताई,
समय न अब तो बाँचा, हमार प्रभु!
चुनरी का रंग पाका………..
कह ब्रह्मेश्वर मन चित लाई,
भजन करहु रघुपति रघुराई,
तबहीं ये जीवन है साँचा, हमार प्रभु!
चुनरी का रंग पाका………..
पाका = पक्का, पाक, पवित्र
रंगरे = गुरु, रंगरेज
राँगन =रंगने के लिए
साँचा = सच्चा, सत्य
राचा = रुचि, रुचना
काँचा = कच्चा, कमजोर, मैला
बाँचा = बचा, शेष
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रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र