आत्ममंथन…. — डॉ. प्रशान्त करण

रात्रि के साढ़े दस बजे थे। दिनचर्या के गणित से मैं सोने जाने को हुआ। बाहर का द्वार बंद कर मुड़ा ही था कि किसी ने खटखटा दिया। मुझे लगा कि किसी को अवश्य मेरी आवश्यकता होगी, तभी वह कुसमय आया है। मैंने द्वार खोले, तभी बाहर से द्वार धकेलते डॉ. विद्रोही मेरे स्वागत कक्ष में रोहिंगिया अथवा बांग्लादेशियों की भांति घुसकर सोफे पर पसर चुके थे। मैं भौंचक्का, ठगा-सा खड़ा रह गया। पसरते ही डॉ. विद्रोही बोल उठे — “दर्शनशास्त्र विभाग में आत्ममंथन के व्याख्यानमाला से सीधे आपके पास आ रहा हूँ।” उन्होंने इस आत्मविश्वास से यह कहा कि मैं अनुग्रहित हो जाऊँ। लेकिन मैं टस से मस नहीं हुआ। वे जमने का प्रयास करने के लिए पासा फेंक चुके थे। मैं उन्हें उखाड़ने के उपक्रम में लगा। मैंने कहा — “इस विषय पर कल दिन में भी बात हो सकती है।”

वे मुझे अनसुना करते हुए बोले — “आत्ममंथन पर आपके क्या विचार हैं?”
मैंने कहा — “आप इतने विद्वानों के विचार सुनकर आए हैं, फिर मेरे विचार की आवश्यकता ही क्यों?”
मेरे दो टूक उत्तर से वे उखड़ने के बदले और पसर कर सोफे पर लेट गए और बोले — “अच्छा बताइए, आत्ममंथन कोई करे तो कैसे और इसकी आवश्यकता ही क्यों?”
मुझे वे बोलने के लिए उकसाने पर तुले थे। मैं भी कम काइँया नहीं था। मैंने कहा — “यह प्रश्न आपको व्याख्यानमाला में ही पूछना था। आप गलत स्थान पर आ गए।”

मैंने सोचा वे सीधा उखड़ कर उठकर चले जायेंगे, पर वे जमने का संकल्प लेकर आए लगते थे। बोले — “अपने विचार आपने नहीं बताए।”
मैंने टालने के लिए कहा — “दिन भर जो अच्छा-बुरा किया, उस पर सोचिए और अगले दिन और अच्छा कर सकते हैं, उस पर मन लगाना ही आत्ममंथन है। इस क्रम में बुरे का धीरे-धीरे परित्याग करना सीखना होगा, ताकि आपका व्यक्तित्व, आपकी सोच सकारात्मक और जनकल्याणकारी हो।”

वे बहस को खींचना चाहते थे। बोले — “मैं कोई गलत करता ही नहीं। विभागाध्यक्ष हूँ।”
मुझे अवसर मिल गया और मैंने तत्क्षण कह दिया — “आपके चरित्र को लेकर उल्टी-सीधी बात कही जाती है।”

वे सुनते ही उठकर बैठ गए और बड़बड़ाने लगे — “अरे, अमुक छात्रा का शोधग्रंथ मैंने जमा करवा दिया है। वह दबंग है, मैं उसका क्या शोषण किया? उल्टे ही मेरे साथ के उसके आपत्तिजनक छवियों को सार्वजनिक करने की धमकी देकर मुझसे दस लाख से ऊपर खींच चुकी है।”

अब वे तनाव में आ चुके थे। मेरा पासा ठीक पड़ा था। मैंने उन्हें उखाड़ने के लिए ब्रह्मास्त्र छोड़ा — “आपके पास आपकी आत्मा तो है ही नहीं, तो आप ख़ाक आत्मचिंतन करेंगे? आपने तो अपनी आत्मा उपकुलपति और शिक्षा मंत्री के पास गिरवी रख दी है।”

मेरा लक्ष सटीक था। वे तिलमिलाकर उठ खड़े हुए और बोले — “आप क्या समझेंगे? विभागाध्यक्ष बनने और बने रहने के लिए इसके बिना कोई विकल्प नहीं है।”
मैं समझ गया — बिना आत्ममंथन किए मैं सफल, सम्पन्न और प्रसन्न रह सकता हूँ। अब डॉ. विद्रोही एक झटके में उठकर चले जा चुके थे, लेकिन आत्ममंथन का बोझ मेरे माथे पर डाल गए थे।

— डॉ. प्रशान्त करण

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