आज हिंदी के कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद @ धनपत राय श्रीवास्तव की जन्म जयंती मनाई जा रही है। आज उनकी अधिकतर छवि श्वेत कुर्ते में पासपोर्ट वाली दिखी। पुरानी छवि, जिसमें वे फटे जूते में धर्मपत्नी के साथ कुर्सी पर बैठे हैं, पर जब से हिंदी व्यंग्य के बड़े स्तंभ, स्मृतिशेष हरिशंकर परसाई जी ने लिखा, कम दिखने लगी।
आज की छवि में प्रेमचंद जी अपने कालखंड के आधुनिक वस्त्र और साज-सज्जा में दिखे। बालों में तेल चुपड़कर उसे कंघे से ललाट के ऊपर खींचकर व्यवस्थित किया गया। दाढ़ी बनी हुई, जिससे चिकने गाल साफ़ दिखे। आँखें उत्सुकता भरी, मानो समाज में वे अपनी कहानी ढूंढने के लिए अभ्यस्त और सजग लगे। मुँह खुला नहीं, अपितु बंद मिला। प्रेमचंद जी संवाद अपनी लेखनी से जो करते थे। वे उस कालखंड में थे जिसमें मुँह बंद रखने में भलाई थी। अगर उनका मुँह खुलता तो बवाल अवश्य होता और संभव था कि वे कारागार की नि:शुल्क यात्रा कर लेते। इससे उन्हें तो नहीं, वरन् उनकी पीढ़ियों को राजनीतिक लाभ स्वतंत्रता के बाद दौड़भाग कर मिलने की संभावना रहती। लेकिन प्रेमचंद समदृष्टा जो थे, भविष्यद्रष्टा थे — अब पता चल रहा है। क्योंकि उनकी कथाएँ बहुत कुछ आज भी प्रासंगिक हैं।
प्रेमचंद जी के अधर खुले रहते तो यह भी संभव था कि कांग्रेस उन्हें आज पोस्टर बॉय बना सकती थी, जिससे निम्न और मध्यम वर्ग को अपने पक्ष में साधा जा सके। लेकिन यह अवसर पहले ही वामपंथियों ने झटक लिया और उनके वामपंथी न होने पर भी उन्हें जनवादी लेखक की संज्ञा दे डाली।
अब मेरा सारा ध्यान उनके श्वेत कुर्ते से हटकर उनकी मूछों पर टिका है। मूछें समानांतर हैं — न ऊपर उठी, न ही नीचे झुकी। न साम्यवाद, न पूंजीवाद — निष्पक्ष। “जो देखा, सो लिखा” का नारा लगाती। मूछें अधपकी हैं — न पूरी काली और न ही पूरी श्वेत। उस समय इन्हें रंगने और युवा दिखने का संघर्ष का शंखनाद नहीं हुआ था। लेकिन मूछें थीं और उस कालखंड के पुरुषोत्तम होने का संकेत करतीं — अंग्रेजों को चिढ़ाती हुई। क्योंकि अधिकतर अंग्रेज सफाचट हुआ करते थे। वे तटस्थ लेखक हैं, बताती हुई समानांतर। हिंदी साहित्य में उस समय तटस्थता का चलन था। पक्षपात लेखन तो वामपंथी एजेंडा चलाने वाले लेखकों ने प्रारंभ किया।
प्रेमचंद की मूछें मुझसे कहने लगीं — जैसा देखो, वैसा ही दिखाओ। लेकिन दिखावा मत करो। अतिशयोक्ति से प्रेमचंद दूर जो रहे। वे चाहते तो मूछें ट्रिम कर, उसे सजा कर छवि उतरवा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। सर्वसाधारण पर, के लिए लिखने के लिए उसी रूप में ढलना जो पड़ता है। एक मित्र कहने लगे कि प्रेमचंद की छवि देखकर लगता है कि उनमें सौंदर्य-बोध था ही नहीं। मैंने उन्हें समझाया — लेखन का सौंदर्य-बोध सरल भाषा और पाठकों को बाँधकर रखने में है। और प्रेमचंद जी ने इसे पूरी सत्यनिष्ठा के साथ निभाया।
अब मेरी दृष्टि उनके कुरते पर गई। श्वेत और दाग-धब्बे रहित। प्रेमचंद के लेखन, भाषा-शैली, कथानक पर किसी ने आज तक कोई कीचड़ नहीं उछाला। वे आलोचनाओं से परे रहे। वे आज तक के माता सरस्वती के सच्चे उपासक दिखे — आडंबर के बिना, साधारण और अपेक्षाकृत मध्यम आय के। हालांकि वे अपनी आर्थिक स्थिति हिंदी साहित्य के सही अर्थों में आज के विद्वानों की तरह छिपाने में सफल दिखे। वे चाहते तो कहीं से कोट-टाई माँगकर छवि उतरवा सकते थे। इससे अंग्रेज वैसे ही प्रसन्न होते, जैसे बहुतेरे धनाढ्य भारतीयों से। संभव था कि वैसी छवि के ही दम पर उन्हें कोई उपाधि भी मिल जाती और हर माह कुछ राशि सरकारी कोष से भी लिफ़ाफ़े में पहुँचती। लेकिन भारतीय परिवेश का कुरता कह रहा है कि उनमें भारतीयता जीवित रही।
— डॉ. प्रशांत करन