– पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
बिहार सरकार द्वारा हाल ही में पत्रकारों की पेंशन राशि को ₹6,000 से बढ़ाकर ₹15,000 किए जाने और उनके निधन के बाद आश्रितों को ₹10,000 प्रतिमाह पेंशन देने की घोषणा ने न केवल पत्रकार समुदाय को राहत दी है, बल्कि झारखंड जैसे राज्यों को भी एक उदाहरण दिया है कि घोषणाओं से आगे जाकर योजनाओं को ज़मीन पर कैसे उतारा जाता है। इसके उलट, झारखंड में पत्रकारों के लिए ₹7,000 मासिक पेंशन योजना की घोषणा तो बहुत पहले की गई थी, और यह योजना कैबिनेट से पास भी हो चुकी है, लेकिन इसका क्रियान्वयन अब तक अधर में लटका हुआ है।
झारखंड सरकार की यह निष्क्रियता न केवल पत्रकारों के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाती है, बल्कि यह भी संकेत देती है कि सरकार लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को अभी भी एक औजार मात्र मानती है—समाचार छपवाने और प्रचार करवाने के लिए, न कि उनके जीवन, भविष्य और अधिकारों की रक्षा के लिए।
राज्य गठन के पच्चीस वर्षों बाद भी पत्रकारों को सामाजिक सुरक्षा के रूप में पेंशन जैसी बुनियादी सुविधा न मिल पाना बेहद शर्मनाक है। बिहार, मध्य प्रदेश, केरल सहित कई राज्य पत्रकारों को सम्मानजनक पेंशन दे रहे हैं। ऐसे में झारखंड सरकार की दुविधा यह बताना कि किसे पत्रकार माना जाए—क्या यूट्यूबर पत्रकार हैं या नहीं—एक सुविधाजनक बहाना भर लगता है। क्या दूसरे राज्यों में ऐसी परिभाषात्मक दुविधाएं नहीं रहीं? क्या वहाँ भी डिजिटल मीडिया के पत्रकार नहीं हैं? अगर वे इन चुनौतियों को पार कर योजनाएं लागू कर सकते हैं, तो झारखंड क्यों नहीं?
झारखंड में पत्रकारों की भूमिका देश के अन्य राज्यों से अधिक जटिल और संवेदनशील है। यहाँ पत्रकारिता का क्षेत्र आदिवासी, दलित, वंचित, ग्रामीण और दूरस्थ समुदायों से जुड़ा हुआ है। ऐसे इलाकों में काम करने वाले पत्रकार जीवन और पेशे—दोनों स्तरों पर जोखिम उठाते हैं। वे अपने सीमित संसाधनों, न्यूनतम सुविधाओं और अक्सर असंगठित ढांचे में काम करते हुए लोकतंत्र के उस स्वरूप को जीवित रखते हैं, जिसे शहरी मुख्यधारा का मीडिया लंबे समय से नज़रअंदाज़ करता आया है।
ऐसे में जब कोई पत्रकार अपनी ज़िंदगी के अंतिम वर्षों में पहुँचता है, तो उसके लिए सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था करना सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है। पेंशन कोई दया नहीं, यह उनके उस योगदान का सम्मान है जो उन्होंने दशकों तक जनहित में किया।
सिर्फ पेंशन योजना ही नहीं, सरकार को पत्रकारों के लिए अन्य बुनियादी सुविधाओं पर भी फौरन ध्यान देना चाहिए—स्वास्थ्य बीमा, आपदा बीमा, प्रेस मान्यता में पारदर्शिता, डिजिटल पत्रकारों की मान्यता, समाचार संकलन के दौरान कानूनी सुरक्षा, और पत्रकारों को संगठित करने हेतु एक स्वतंत्र आयोग की स्थापना जैसी पहलें बहुत जरूरी हैं। झारखंड जैसे राज्य में, जहाँ पत्रकारिता की ज़मीन खतरों से भरी है, वहाँ यह सब ‘सहूलियत’ नहीं, बल्कि ‘ज़रूरत’ है।
पत्रकार संगठनों को भी अब और प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। पेंशन योजना के क्रियान्वयन के लिए उन्हें सरकार के समक्ष सामूहिक रूप से, योजनाबद्ध और शांतिपूर्ण ढंग से दबाव बनाना होगा। यह केवल एक वर्ग का संघर्ष नहीं है, यह लोकतंत्र की आत्मा को जीवित रखने की लड़ाई है। यदि सरकारें पत्रकारों को केवल प्रचार तक सीमित रखना चाहती हैं और उनके अधिकारों की अनदेखी करती हैं, तो यह लोकतंत्र को खोखला करने वाली प्रवृत्ति है।
यदि हेमंत सरकार वास्तव में लोकतांत्रिक मूल्य और सामाजिक न्याय की पक्षधर है, तो उसे तुरंत इस योजना को ज़मीन पर लागू करना चाहिए। बजट सुनिश्चित हो, पात्रता सूची बने, क्रियान्वयन की समयसीमा तय हो और पत्रकारों को तत्काल लाभ मिले—इतनी अपेक्षा रखना न तो अनुचित है, न ही असंभव।
यह सरकार की संवेदनशीलता, ईमानदारी और जवाबदेही की अग्निपरीक्षा का समय है। घोषणाओं से निकलकर ज़मीनी क्रियान्वयन की ओर एक स्पष्ट, साहसिक और मानवीय कदम उठाना होगा। वरना यह इतिहास में दर्ज हो जाएगा कि जब पत्रकार अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, तब सरकार ने केवल चुप्पी ओढ़ ली थी।
झारखंड के पत्रकारों की यह विडंबना रही है कि वे हमेशा आश्वासनों के भरोसे ही रहे हैं। राज्य गठन के पच्चीस वर्षों बाद भी पत्रकारों के लिए कोई सशक्त पेंशन योजना लागू नहीं हो सकी है। हेमंत सरकार ने इस दिशा में पहल अवश्य की, लेकिन उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा सकी। यह स्थिति प्रशासन की उस असंवेदनशीलता को दर्शाती है, जिसमें लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका को केवल प्रचार तक सीमित समझा जाता है, न कि संरक्षा और सम्मान के योग्य।
बिहार की ताजा पहल झारखंड के लिए एक आईना है। यदि एक पड़ोसी राज्य पत्रकारों की सामाजिक सुरक्षा को लेकर इतनी सजगता दिखा सकता है, तो झारखंड क्यों नहीं? सरकार की दुविधा यह है कि वह अब तक तय नहीं कर पाई है कि किसे पत्रकार माना जाए—क्या यूट्यूबर को भी पत्रकार की परिभाषा में लाया जाए या नहीं। यह भ्रम अब योजना को बाधित करने का बहाना बन गया है, जबकि देश के अन्य राज्यों में डिजिटल पत्रकारिता के समावेश की प्रक्रिया काफी पहले पूरी की जा चुकी है। झारखंड सरकार यदि चाहे तो इन राज्यों के दिशा-निर्देशों को अपनाकर तुरंत निर्णय ले सकती है।
झारखंड में पत्रकारों की भूमिका अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण और ज़रूरी है। यह राज्य आदिवासी, दलित, ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों से जुड़ी खबरों का केंद्र है, जिसे मुख्यधारा की मीडिया अक्सर नज़रअंदाज़ कर देती है। यहां के पत्रकार न केवल लोकतंत्र को जीवित रखते हैं, बल्कि शासन और समाज के बीच सेतु का कार्य भी करते हैं। ऐसे में जब वे उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंचते हैं, तो उनके लिए सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए।
पेंशन योजना के अलावा सरकार को पत्रकारों के लिए अन्य बुनियादी सहूलियतें देने में भी तत्परता दिखानी चाहिए। पत्रकारों के लिए स्वास्थ्य बीमा, नियमित प्रेस मान्यता, समाचार संकलन के दौरान सुरक्षा, और डिजिटल पत्रकारों को भी अधिकारिक मान्यता देने जैसे कदम ज़रूरी हैं। झारखंड जैसे राज्य में जहां पत्रकारिता जोखिम से भरी होती है, वहां इन सुविधाओं का मिलना केवल सहूलियत नहीं, बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी है।
पत्रकार संगठनों को भी अब एकजुट होकर सरकार पर निर्णायक दबाव बनाना होगा। यह केवल पेंशन का सवाल नहीं, बल्कि पत्रकारों की गरिमा और सामाजिक सुरक्षा का सवाल है। उन्हें चाहिए कि वे इस मुद्दे को संगठित तरीके से सरकार के समक्ष रखें, और यदि आवश्यक हो तो जन आंदोलन की शक्ल दें। साथ ही समाज को भी यह समझना होगा कि यह सिर्फ पत्रकारों का मुद्दा नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का भी विषय है।
यह आवश्यक है कि हेमंत सरकार अब इस योजना को ठोस दिशा दे। यदि योजना कैबिनेट से पारित हो चुकी है, तो उसके लिए बजट और क्रियान्वयन प्रक्रिया में देरी का कोई औचित्य नहीं रह जाता। सरकार को चाहिए कि वह पत्रकारों की परिभाषा पर एक स्पष्ट गाइडलाइन तय करे, पात्रता की सूची तैयार करे और योजना का त्वरित लाभ देना सुनिश्चित करे। जिस तरह से बिहार, मध्यप्रदेश और केरल ने पत्रकार पेंशन को सम्मानजनक स्तर तक पहुंचाया है, झारखंड भी ऐसा कर सकता है—बस उसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक तत्परता चाहिए।
यदि सरकार पत्रकारों के सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती, तो यह लोकतंत्र को कमजोर करने जैसा है। पत्रकारों की सेवा का सम्मान तभी होगा जब उनकी बुजुर्गावस्था और संकट के समय में सरकार उनके साथ खड़ी होगी। सिर्फ घोषणाएं और वादे कर देना ही पर्याप्त नहीं, उन्हें ज़मीन पर उतारना भी उतना ही ज़रूरी है।
झारखंड सरकार को अब पत्रकारों के प्रति संवेदनशीलता और तत्परता दोनों दिखानी चाहिए। पेंशन योजना को अविलंब लागू किया जाए, और साथ ही पत्रकारों को वे सभी सहूलियतें प्रदान की जाएं जिनकी उन्हें ज़रूरत है। यह न केवल सरकार की साख को मजबूत करेगा, बल्कि लोकतंत्र को भी एक मज़बूत आधार देगा। यदि अब भी सरकार मौन रही, तो इसका मतलब साफ है—वह पत्रकारों को केवल प्रचार का माध्यम मानती है, उनकी समस्याओं से उसका कोई वास्ता नहीं।