‘अतीत से सीखो, वर्तमान को जियो’-अतीत की भूलों से सबक लेकर बनेगा सशक्त भारत

– पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘

(स्वतंत्रता दिवस विशेष ) 

आज़ाद भारत की कहानी जितनी प्रेरक है, उतनी ही पेचीदा भी। जब 15 अगस्त 1947 को देश को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी मिली, तब करोड़ों देशवासियों के दिल में एक ही ख्वाब था – अब अपना राज होगा, अपनी सरकार होगी, और अपने लोग देश को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ?

शुरू के सालों में देश एक तरह की खुमारी में था। लोगों को यह भरोसा था कि जिन्होंने आज़ादी दिलाई, वही उसे सही दिशा में भी ले जाएंगे। उन्होंने नेहरू, पटेल, अंबेडकर, गांधी जैसे नेताओं को नायक की तरह देखा। लेकिन जैसे-जैसे सत्ता की चकाचौंध बढ़ी, असलियत सामने आने लगी।

नेहरू को लेकर देश में जितनी श्रद्धा थी, उतनी ही बाद में विवाद भी खड़े हुए। उनकी कई नीतियाँ, जो देखने में आदर्श लगती थीं, असल में देश को अंदर से खोखला कर रही थीं। समाजवाद का जो मॉडल उन्होंने अपनाया, उसमें उद्यमिता की कोई गुंजाइश नहीं थी। सरकारी नियंत्रण की जंजीरों में देश की अर्थव्यवस्था जकड़ गई। उद्योग बढ़ने की बजाय सरकारी फाइलों में उलझकर दम तोड़ने लगे।

और फिर सबसे बड़ी चूक – चीन को लेकर की गई भूल। जिस चीन को ‘भाई’ कहा गया, उसी ने पीठ पर छुरा घोंपा। 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया, तो नेहरू की विदेश नीति की सच्चाई सामने आ गई। देश मानसिक रूप से तैयार नहीं था। सेना के पास पर्याप्त संसाधन नहीं थे। ये उसी नेहरू काल की देन थी, जिसमें रक्षा तैयारियों से ज़्यादा जोर पंचशील और शांति पर दिया गया।

नेहरू के बाद जब लाल बहादुर शास्त्री आए, तब देश को थोड़ी सच्चाई का एहसास हुआ। “जय जवान, जय किसान” जैसे नारे सिर्फ दिखावटी नहीं थे, बल्कि जमीनी हालात की पहचान थे। उन्होंने पाकिस्तान को जवाब भी दिया और देश को आत्मनिर्भर बनने की दिशा में बढ़ाया। लेकिन उनका कार्यकाल छोटा रहा।

फिर आई इंदिरा गांधी की बारी। ‘Indira is Indian, India is Indira’?! बांग्लादेश युद्ध में उन्होंने जो नेतृत्व दिखाया, वो काबिल-ए-तारीफ था। लेकिन उन्होंने भी एक ऐतिहासिक गलती कर दी – 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को बिना शर्त छोड़ देना और पीओके को हाथ से निकलने देना। ये उस वक्त एक बड़ा कूटनीतिक अवसर था, जो भारत के हाथ से चला गया।

इंदिरा गांधी के शासन में सत्ता की भूख ने सब कुछ पीछे छोड़ दिया। 1975 में लगाया गया ‘आपातकाल’ देश के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला अध्याय था। अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन गई, नेताओं को जेल में डाल दिया गया, और संविधान को ताक पर रखकर फैसले किए गए। देश एक बार फिर डर और दमन के दौर में पहुंच गया – फर्क सिर्फ इतना था कि इस बार शासक विदेशी नहीं, अपने ही थे।

बाद की सरकारें भी कोई खास सुधार नहीं कर सकीं। राजीव गांधी के समय में तकनीकी विकास की शुरुआत जरूर हुई, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी छवि धूमिल कर दी। वीपी सिंह की मंडल राजनीति ने देश को जातियों में और बाँट दिया। कांग्रेस, जनता दल, और बाद में बनी तमाम सरकारें बस सत्ता चलाने का नाम बनकर रह गईं। देश की नीतियों में नीयत की जगह गिरती चली गई।

देश एक आर्थिक मोड़ पर 1991 में पहुंचा, जब मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को खोलने का साहसिक फैसला लिया। लेकिन इसके पीछे भी मजबूरी थी – देश कंगाली की कगार पर था। उस सुधार का फायदा हुआ, लेकिन नेतृत्व कमजोर रहा। गठबंधन की सरकारों ने देश को खींच-खींच कर चलाया। कोई स्पष्ट दिशा नहीं थी।

फिर आई एक नई राजनीतिक लहर – नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में। 2014 के बाद जो बदलाव आया, वह अतीत की तमाम गलतियों से सबक लेने की कोशिश थी। ‘सबका साथ, सबका विकास’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’ जैसे अभियानों ने जनता में भरोसा जगाया कि देश फिर से उठ सकता है। एक मजबूत नेतृत्व, स्पष्ट नीति, और राष्ट्रहित की नीयत दिखी।

मोदी सरकार पर भले कई तरह की आलोचनाएं हों, लेकिन ये तो साफ है कि अब भारत की वैश्विक छवि मजबूत हुई है। विदेश नीति आक्रामक और स्पष्ट हुई है। पाकिस्तान को सीमा पर करारा जवाब मिलता है, चीन की आंखों में आंख डालकर बात की जाती है, और देश के अंदर विकास की रफ्तार तेज हुई है।

अब सवाल यह है – क्या आज की पीढ़ी इस बदलाव को समझ रही है? क्या वो राजनीति को गाली देने की बजाय उसमें भागीदारी ले रही है? सोशल मीडिया पर गुस्सा निकालना आसान है, लेकिन असली ज़िम्मेदारी तब आती है जब वोट डालते वक्त, सवाल पूछते वक्त, और सिस्टम को सुधारने के लिए कदम उठाते वक्त आप खुद को ज़िम्मेदार मानें।

आज की राजनीति को साफ करने के लिए अच्छे लोगों को आगे आना होगा। पढ़े-लिखे नौजवान, प्रोफेशनल्स, शिक्षक, डॉक्टर, सैनिक – सबको सिर्फ फेसबुक या ट्विटर से बाहर निकलकर राजनीति के मैदान में आना होगा। नहीं तो वही पुराने चेहरे, वही जातिवादी भाषण, और वही झूठे वादे देश को फिर से भटका देंगे।

अतीत में जो हुआ वो हो गया – लेकिन उससे आंख मूंदना भी बेवकूफी है। अगर हमने नेहरू की गलतियों से सीखा होता, तो शायद 1962 की हार न होती। अगर हमने इंदिरा गांधी के आपातकाल से सबक लिया होता, तो आज लोकतंत्र को लेकर इतना डर न होता। लेकिन अगर आज भी हम न सीखें, तो दोष हमारा ही होगा।

आज का समय वही है जब हम देश को आगे ले जा सकते हैं। हमें जरूरत है – नीति की भी, और नीयत की भी। सिर्फ योजनाएं बना देने से कुछ नहीं होगा, जब तक जनता खुद जागरूक न हो। हर नागरिक अगर अपने हिस्से का ईमानदारी से काम करे – चाहे वह सरकारी अफसर हो, व्यापारी हो, किसान हो या पत्रकार – तो देश को बदलने से कोई नहीं रोक सकता।

तो आइए, आजादी के इन 75+ सालों के बाद, एक नई शुरुआत करें। अतीत से सीखें, लेकिन उसमें उलझें नहीं। वर्तमान को पूरी सच्चाई और साहस से जिएं। देश हमारा है, तो जिम्मेदारी भी हमारी ही है। देश को सिर्फ नेता नहीं, जनता चलाती है – और यह जनता अब समझदार भी है और जागरूक भी।

याद रखिए – अगर हम नहीं जागे, तो फिर से कोई और राज करेगा। कहने को तो देश हमारा होगा किन्तु इस पर शासन कोई और कर रहा होगा। हमारे भारत भारतीय संस्कृति का ही वाहक बना रहे इसके लिए हम सब मिलकर सही दिशा में सोचें, काम करें और नेतृत्व करें – तो यह भारत आने वाले सालों तक आज़ाद, स्वाभिमानी और उन्नत रहेगा। यही हमारा कर्तव्य है। यही स्वतंत्रता की सच्ची रक्षा है। और स्वतंत्रता दिवस पर यही मेरे उद्गार !

Advertisements
Ad 7