भए असमर्थ जगत के स्वामी…….   ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र

आज मैं प्रभु श्रीराम की असमर्थता (लीला की दृष्टि से) पर अपनी रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रभु श्रीराम तो सर्वसमर्थ हैं, उनमें भला असमर्थता की बात कहाँ से आ सकती है? पर प्रभु तो नर रूप में अवतार लिये हैं इसलिए मनुष्योचित चरित्र करना स्वाभाविक है। इस प्रकार प्रभु श्रीराम लीला की दृष्टि से हीं तीन बार अपने को असमर्थ पाए हैं। पहली बार जब केंवट को उतराई देने का समय आया है तो प्रभु अपने को असमर्थ पाए हैं कि आज मेरे पास कुछ है नहीं केंवट को उतराई देने के लिए, तब सीता जी ने अपनी अंगूठी देकर प्रभु की असमर्थता को दूर किया। दूसरी बार जब मेघनाद ने प्रभु श्रीराम को नागपाश में बाँध लिया तो उससे मुक्त होने के लिए प्रभु अपने को असमर्थ पाए, तब गरूड़ जी को बंधन काटने को बुलाना पड़ा और तीसरी बार जब प्रभु श्रीराम ने रावण का वध करने के लिए बार बार उसके सिर को काटा पर उसका सिर पुनः नवीन उत्पन्न हो जाता था। पृथ्वी, आकाश, दिशा, विदिशा सर्वत्र सिर ही सिर छा गया पर रावण मर नहीं सका तब प्रभु रावण का वध करने में अपने को असमर्थ पाए और तब उन्हें विभीषण जी से पूछना पड़ा कि रावण का वध कैसे होगा? तब विभीषण जी ने रावण के वध का उपाय बताया कि इसके नाभी में अमृत कुण्ड है इसलिए हे प्रभु पहले इसके अमृत कुण्ड को सोख लिजीए और तब रावण मारा जाएगा। इस प्रकार विभीषण जी ने प्रभु की असमर्थता दूर की।…..

भए असमर्थ जगत के स्वामी ।
सर्व समर्थ सकल जग त्राता,
सकल विश्व के भाग्य विधाता,
सकल जगत उर अंतर्यामी ।
भए असमर्थ जगत के………
जब केंवट प्रभु पार उतारा,
भए ससोच प्रभु जगदाधारा,
लीला वश श्रीराम सकुचानी ।
भए असमर्थ जगत के………
नाग फाँस जब निशिचर डाला,
गए बँधाइ प्रभु राम कृपाला,
गरुड़ बुलाइ मुक्त भए स्वामी ।
भए असमर्थ जगत के………
बार बार रावण सिर काटहिं,
गगन मही चहुँ दिशि सिर पाटहिं,
मरत न मारत दुष्ट अभिमानी ।
भए असमर्थ जगत के……..

 

रचनाकार

   ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र