जब नारद जी ने पार्वती जी के माता पिता को यह बताया कि तुम्हारी पुत्री को अशुभ अमंगल वेष धारण करने वाला पती मिलेगा और ये सभी गुण शिव जी में है तब पार्वती जी के माता पिता बहुत दुखी हुए। उन्हें दुखी देख नारद जी समझाते हुए कहते हैं कि शिव जी सामर्थवान हैं और सामर्थवान को कोइ भी कार्य करने में दोष नहीं होता। भगवान विष्णु शेषनाग पर सोते हैं पर बुद्धिमान लोग उन्हें दोष नहीं लगाते। सूर्यदेव सुन्दर नदियों का जल भी सोखते हैं और गंदी नाली का जल भी सोखते हैं पर वे तो मन्द नहीं कहाते। अग्निदेव पवित्र और अपवित्र दोनों प्रकार की वस्तुओं का भक्षण करते हैं पर उनको तो कोई बुरा नहीं कहता। सुरसरी यानी गंगा जी मे सुन्दर नदियों का जल भी जाकर मिलता है और गंदी नालियों का जल भी जाकर मिलता है पर गंगा जी तो अपवित्र नहीं कही जातीं। ये सभी सामार्थवान हैं। इनके लिए सब शोभनीय है पर जो मनुष्य इनकी नकल या देखादेखी करते हैं वे कल्प भर नरक में पड़े रहते हैं। इसलिए हे राजन! शिव जी को पती रूप में प्राप्त करने के लिए अपनी पुत्री को तप करने के लिए वन में भेजो। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है मेरी ये रचना :–
समरथ को नहिं दोष गोसाईं ।
शैय्या शेष शयन हरि करहीं,
बुध नहिं दोष लगाई रे भाई ।
समरथ को नहिं…………..
भानु सरब रस पान करतु हैं,
सो नहिं मन्द कहाई रे भाई ।
समरथ को नहिं………….
अगिन सरब रस भक्षण करहीं,
कोउ नहिं करत बुराई रे भाई ।
समरथ को नहिं……………
शुभ अशूभ जल मिलहिं सुरसरी,
नहिं अपवित्र कहाई रे भाई ।
समरथ को नहिं…………..
जो जड़ नर अस हिसिषा करहीं,
परहिं कलप भर नरक मे जाई ।
समरथ को नहिं……………
हिसिषा = देखा-देखी
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रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र