सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’।
भारत में नकली दवाओं का कारोबार एक गंभीर समस्या बन चुका है, जो न केवल देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को कमजोर कर रहा है, बल्कि लोगों के जीवन से भी खिलवाड़ कर रहा है। जब बीमारियों से जूझते लोग अपनी अंतिम उम्मीद के रूप में दवाओं का सहारा लेते हैं और उनके हाथ नकली दवाएं आती हैं, तो यह सिर्फ एक धोखाधड़ी नहीं, बल्कि सीधे-सीधे हत्या का प्रयास है। नकली दवाओं का यह जाल सिर्फ स्थानीय बाजार तक सीमित नहीं है; यह वैश्विक स्तर पर भारत की छवि को भी धूमिल कर रहा है।
नकली दवाओं का कारोबार दिन-रात फल-फूल रहा है। इस समय, यह समस्या केवल भारत तक सीमित नहीं रही है; भारतीय दवाइयों की गुणवत्ता पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी सवाल उठ रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक नकली दवाओं के बाजार में भारत की हिस्सेदारी काफी बड़ी है, जो भारतीय दवाओं की वैश्विक साख के लिए एक बड़ा खतरा है। भारत में नकली दवाओं का प्रमुख कारण सस्ती कीमतों और उच्च मांग के बीच का असंतुलन है। इस गैप को भरने के लिए अवैध रूप से नकली दवाएं तैयार की जा रही हैं, जो न केवल प्रभावहीन हैं, बल्कि कई बार जानलेवा भी साबित हो रही हैं।
पिछले कुछ महीनों में कई बड़े मामले सामने आए हैं, जिनमें नकली दवाओं की खेप पकड़ी गई है। गुजरात में एक बड़ी नकली पैरासिटामोल की खेप पकड़ी गई, जिसने यह साबित किया कि यह नेटवर्क कितना विस्तृत है। इसके अलावा, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में भी नकली दवाओं की अवैध फैक्ट्रियों का पर्दाफाश हुआ, जहां बड़े पैमाने पर इन दवाओं का उत्पादन हो रहा था। लेकिन यह केवल कुछ उदाहरण हैं; असल समस्या की गहराई इससे कहीं अधिक है।
इन घटनाओं के बाद देशभर में हड़कंप मचा, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह हड़कंप सिर्फ एक क्षणिक प्रतिक्रिया है, या सरकार और प्रशासन इस समस्या का स्थायी समाधान खोजने में सक्षम होंगे? नकली दवाओं के निर्माण और वितरण में शामिल असली खिलाड़ी अभी भी खुलेआम घूम रहे हैं, और कानून का शिकंजा इन पर ढीला पड़ता नजर आ रहा है।
सरकार ने नकली दवाओं के खिलाफ लड़ाई के लिए कई योजनाओं और कानूनों का ऐलान किया है। ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट में संशोधन कर दवाओं की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने की बात कही गई, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयान करती है। ट्रैक एंड ट्रेस जैसी योजनाएं, जिनका उद्देश्य हर दवा की पहचान को सुरक्षित रखना था, अभी तक कागजों तक ही सीमित हैं। यह योजना डिजिटल ट्रैकिंग के माध्यम से दवाओं की प्रामाणिकता सुनिश्चित करती, लेकिन इसका पूर्ण कार्यान्वयन अभी तक संभव नहीं हो पाया है।
इसके अलावा, फार्माकोविजिलेंस प्रोग्राम जैसे सिस्टम, जो दवाओं की निगरानी और उनकी प्रभावशीलता का आकलन करते हैं, भी केवल बड़े शहरों तक सीमित हैं। नकली दवाओं का असली खेल छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में हो रहा है, जहां लोग इन योजनाओं से अनजान हैं। ऐसे में सरकार के दावे और वास्तविकता के बीच की खाई बढ़ती जा रही है।
सरकार ने मेडिकल स्टोर्स और फार्मा कंपनियों पर कड़ी निगरानी की बात कही है, लेकिन उन पर लागू होने वाले कानूनों के उल्लंघन की घटनाएं आए दिन सामने आती रहती हैं। साथ ही, न्यायिक प्रक्रियाएं धीमी होने के कारण दोषियों को सज़ा मिलने में देर हो रही है, जिससे नकली दवाओं के कारोबारियों के हौसले बुलंद हैं।
भारत का फार्मास्युटिकल सेक्टर दुनिया में सबसे बड़ा जेनेरिक दवाओं का उत्पादक है। भारत न केवल अपने देश के लोगों के लिए बल्कि दुनिया के कई विकासशील देशों के लिए सस्ती और प्रभावी दवाएं उपलब्ध कराता है। भारत द्वारा बनाई गई जेनेरिक दवाएं दुनिया के लगभग 150 देशों में निर्यात की जाती हैं। लेकिन नकली दवाओं के व्यापार ने इस प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भी नकली दवाओं की बढ़ती चुनौती पर चिंता जताई है, और भारत को इस समस्या से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत है।
यदि यह स्थिति नहीं सुधरी, तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय दवाओं की पहचान खतरे में पड़ सकती है। विदेशी बाजारों में भारतीय दवाओं की साख पर सवाल उठ रहे हैं। कई अंतरराष्ट्रीय नियामक संस्थाएँ भारतीय दवाओं की गुणवत्ता पर बार-बार सवाल खड़े कर रही हैं, जिससे भारत का फार्मास्युटिकल सेक्टर अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में पिछड़ सकता है।
नकली दवाओं का सबसे बुरा असर गरीब और पिछड़े वर्गों पर पड़ता है, जो दवाओं की असलियत को समझ नहीं पाते। दवाओं के नाम पर जो धोखा उन्हें मिलता है, वह उनकी जान तक ले सकता है। जब एक गरीब व्यक्ति अपनी गाढ़ी कमाई से दवा खरीदता है और बदले में नकली दवा मिलती है, तो यह उसके जीवन के साथ सबसे बड़ा छल है। नकली दवाओं के कारण गरीब वर्ग की बीमारियां और गंभीर हो जाती हैं, जिससे उनकी हालत और खराब होती है।
सरकारी अस्पतालों में दवाओं की आपूर्ति में भी नकली दवाओं का समावेश हो गया है, जिससे मरीजों की जान पर सीधा संकट मंडरा रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं पर भी इसका गहरा प्रभाव है। नकली दवाएं लेने से मरीजों की हालत और बिगड़ती है, जिससे अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवाओं पर भारी बोझ पड़ रहा है।
नकली दवाओं के खिलाफ जंग में अब आधे-अधूरे कदम नहीं चलेंगे। कानून को सख्ती से लागू करना ही पहला कदम होगा। इसके अलावा, सरकार को दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम को पूरी तरह से लागू करना होगा, ताकि हर दवा का हिसाब-किताब रखा जा सके। फार्मास्युटिकल कंपनियों को भी जवाबदेह बनाना होगा कि वे दवाओं की प्रामाणिकता सुनिश्चित करें।
इसके साथ ही, जनता में जागरूकता फैलानी होगी कि असली और नकली दवाओं में कैसे फर्क किया जा सकता है। नकली दवाओं की पहचान के लिए जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है, खासकर ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में, जहां नकली दवाओं का कारोबार सबसे ज्यादा फलता-फूलता है। इसके अलावा, स्थानीय ड्रग कंट्रोल एजेंसियों को भी अधिक अधिकार देने होंगे ताकि वे इस समस्या पर कड़ी नजर रख सकें।
नकली दवाओं का कारोबार भारत के लिए एक ज्वलंत समस्या बन चुका है। अगर समय रहते इस पर नियंत्रण नहीं किया गया, तो यह समस्या और विकराल रूप धारण कर सकती है। यह सिर्फ बाजार का मामला नहीं, बल्कि लोगों की जिंदगियों का सवाल है। सरकार, उद्योग, और समाज—सभी को मिलकर इस चुनौती का सामना करना होगा। नकली दवाओं के इस काले कारोबार को खत्म करने के लिए सिर्फ सरकारी योजनाएं और कानून पर्याप्त नहीं होंगे, बल्कि इसके लिए एक ठोस और समन्वित प्रयास की जरूरत है। आज अगर हम इस समस्या पर काबू नहीं कर पाए, तो कल हमारी साख और हमारे लोगों का स्वास्थ्य दोनों ही खतरे में पड़ जाएंगे।