सम्पादकीय : पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश’।
भारत एक विशाल लोकतंत्र है, जहां हर साल किसी न किसी राज्य या क्षेत्र में चुनाव होते रहते हैं। ये चुनावी प्रक्रिया न केवल समय और संसाधनों का भारी खर्च करती है, बल्कि प्रशासनिक कामकाज को भी प्रभावित करती है। ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार इन चुनौतियों को दूर करने के लिए एक क्रांतिकारी कदम के रूप में सामने आया है। यह विचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लगातार प्रोत्साहित किया जा रहा है और इसका उद्देश्य भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को और अधिक सुव्यवस्थित और कुशल बनाना है।
‘एक देश, एक चुनाव’ का तात्पर्य है कि पूरे देश में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। यह विचार केवल चुनावी प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए नहीं है, बल्कि यह देश के प्रशासनिक और आर्थिक ढांचे को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से लाया गया है। जब बार-बार चुनाव होते हैं, तो हर बार चुनाव आचार संहिता लागू की जाती है, जिससे सरकार के नीतिगत फैसले और विकास योजनाओं पर ब्रेक लग जाता है। एक साथ चुनाव से सरकारों को विकास कार्यों और नीतिगत फैसलों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने का समय मिलेगा।
‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार भारत के लिए नया नहीं है। 1952 से लेकर 1967 तक, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही कराए जाते थे। यह व्यवस्था सफलतापूर्वक चलती रही, लेकिन 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं समय से पहले भंग हो गईं, जिसके बाद चुनावों का चक्रव्यूह बन गया। आज, हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। सवाल यह है कि जब 1950-60 के दशक में यह प्रणाली सफल थी, तो अब इसे फिर से लागू क्यों नहीं किया जा सकता?
भारत जैसे विशाल देश में बार-बार चुनाव कराना प्रशासनिक और आर्थिक दृष्टिकोण से चुनौतीपूर्ण हो गया है। चुनावी प्रक्रिया के दौरान सरकारी खजाने पर भारी दबाव पड़ता है। चुनावों के कारण सुरक्षा बलों और प्रशासनिक अधिकारियों की बड़े पैमाने पर तैनाती होती है, जिससे उनके नियमित कार्य प्रभावित होते हैं। चुनावों पर होने वाला भारी खर्च विकास योजनाओं और सार्वजनिक सेवाओं पर खर्च किए जाने वाले धन का एक बड़ा हिस्सा खा जाता है।
अगर पूरे देश में एक साथ चुनाव हों, तो इससे प्रशासनिक अधिकारियों और सुरक्षा बलों पर बोझ कम होगा। इससे देश का समय, धन और संसाधनों की बचत होगी, जो देश के विकास के कामों में लगाए जा सकते हैं। ‘एक देश, एक चुनाव’ के समर्थक मानते हैं कि इससे न केवल चुनावी खर्चों में कमी आएगी, बल्कि सरकारें अपने पूरे कार्यकाल के दौरान नीतिगत मामलों पर अधिक ध्यान दे सकेंगी।
भारतीय चुनावी प्रक्रिया में काले धन और भ्रष्टाचार की समस्याएं गहराई तक पैठी हुई हैं। हर चुनाव के दौरान काले धन का बड़े पैमाने पर उपयोग होता है, जिससे चुनावों की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं। ‘एक देश, एक चुनाव’ से इस समस्या को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। एक साथ चुनाव कराने से अवैध धन के उपयोग की घटनाएं कम होंगी और चुनावी प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष होगी।
‘एक देश, एक चुनाव’ के विचार को लागू करने के लिए संविधान में कई महत्वपूर्ण बदलावों की आवश्यकता होगी। संविधान के अनुच्छेद 83(2) और 172 में संशोधन करना होगा, जो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल से संबंधित हैं। इनके कार्यकाल को एक साथ लाने के लिए कई संवैधानिक प्रावधानों को संशोधित या पुनः परिभाषित करना पड़ेगा।
अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की स्थिति में चुनाव स्थगित करने की संभावना को भी नए सिरे से परिभाषित करना होगा। इसके अलावा, राजनीतिक दलों, निर्वाचन आयोग और राज्यों के बीच व्यापक सहमति बनाना भी इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह संवैधानिक संशोधन केवल तभी संभव हो पाएंगे जब सभी राजनीतिक दल एकमत हों और देश की जनता का समर्थन भी मिले।
‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए राज्यों और केंद्र के चुनावों को एक साथ लाना जरूरी होगा। जिन राज्यों के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव से पहले होते हैं, उनके कार्यकाल को बढ़ाया जा सकता है, जबकि जिन राज्यों के चुनाव बाद में होते हैं, उनके कार्यकाल को छोटा किया जा सकता है। यह प्रक्रिया चुनौतीपूर्ण हो सकती है, लेकिन संवैधानिक संशोधनों के जरिए इसे लागू किया जा सकता है।
‘एक देश, एक चुनाव’ के विचार पर विधि आयोग और संसदीय समितियों ने भी विचार किया है। विधि आयोग ने 2015 में सिफारिश की थी कि इस प्रणाली को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा सकता है। पहले कुछ राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं और फिर धीरे-धीरे इसे पूरे देश में लागू किया जा सकता है।
एक साथ चुनाव कराने के लिए सुरक्षा और चुनावी प्रबंधन का कार्य भी चुनौतीपूर्ण होगा। देशभर में एक साथ चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग को अधिक संसाधनों और कर्मचारियों की आवश्यकता होगी। इसके लिए बड़ी संख्या में ईवीएम और वीवीपैट मशीनों की जरूरत होगी, साथ ही प्रशासनिक अधिकारियों और सुरक्षा बलों की तैनाती को भी व्यवस्थित तरीके से किया जाएगा।
इतने बड़े संवैधानिक बदलावों के लिए न्यायिक परीक्षण और हस्तक्षेप भी एक अनिवार्य चरण होगा। कई राजनीतिक दल ‘एक देश, एक चुनाव’ के खिलाफ हैं और यह संभावना है कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच सकता है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस पूरी प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता है।
‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार जितना आकर्षक लगता है, इसे लागू करना उतना ही जटिल है। इसे लागू करने के लिए राजनीतिक सहमति अत्यंत आवश्यक है। भारतीय लोकतंत्र एक संघीय ढांचे पर आधारित है, जिसमें राज्यों की स्वायत्तता को संरक्षित किया गया है। राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आपसी समझौते और समन्वय की आवश्यकता होगी।
‘एक देश, एक चुनाव’ भारतीय लोकतंत्र के लिए एक क्रांतिकारी कदम साबित हो सकता है। इससे देश की चुनावी प्रक्रिया अधिक संगठित, पारदर्शी और कुशल बन सकेगी। यह न केवल चुनावी खर्चों में कमी लाएगा, बल्कि देश के विकास कार्यों में भी तेजी लाएगा। हालांकि, इसे सफलतापूर्वक लागू करने के लिए संवैधानिक संशोधन और राजनीतिक दलों के बीच सहमति आवश्यक होगी।
यदि जीएसटी जैसी आर्थिक व्यवस्था पूरे देश में लागू हो सकती है, तो ‘एक देश, एक चुनाव’ भी संभव है। यह सही दिशा में उठाया गया एक बड़ा कदम हो सकता है, जिससे देश की लोकतांत्रिक प्रणाली को और अधिक सुदृढ़ और सक्षम बनाया जा सकेगा।