झूठे विमर्शों का खेल: भारतीय सनातन संस्कृति पर पश्चिमी हमले

– पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘

भारत, एक समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर वाला देश, सदियों से अपनी सनातन परंपराओं और मान्यताओं के लिए जाना जाता है। लेकिन इसी धरती पर विदेशी ताकतों ने समय-समय पर कई झूठे विमर्श गढ़े और फैलाए, जिनका मकसद भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक पहचान को कमजोर करना था। इस प्रकार के विमर्श केवल आज की बात नहीं हैं, बल्कि अंग्रेजी उपनिवेशवाद के समय से ही ऐसे विचारधाराओं का प्रसार होता रहा है। अंग्रेजों ने भारतीय समाज और इसकी जड़ों पर प्रहार करने के लिए इसे “सपेरों का देश” कहकर अपमानित किया और यह दावा किया कि यहां केवल अशिक्षित और गरीब लोग रहते हैं। इस लेख का उद्देश्य इन झूठे विमर्शों का पर्दाफाश करना और यह समझाना है कि कैसे भारत के खिलाफ चलाए जा रहे इस प्रोपेगेंडा का सामना करने की आवश्यकता है।

अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान, भारत की संस्कृति और उसकी परंपराओं को निम्न दिखाने का निरंतर प्रयास हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य ने यह धारणा फैलाने का काम किया कि पश्चिम से आने वाले विचार और विज्ञान ही आधुनिकता और प्रगति के प्रतीक हैं, जबकि भारतीय संस्कृति को रूढ़िवादी और अवैज्ञानिक करार दिया गया। यह प्रचार इसलिए किया गया ताकि भारतीयों में अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति आत्म-संदेह उत्पन्न हो, और वे पश्चिमी सभ्यता को सर्वोपरि मानकर उसके सामने झुक जाएं।

शहरीकरण को विकास का एकमात्र साधन बताने का झूठा विमर्श भी अंग्रेजों के समय से शुरू हुआ। ग्रामीण क्षेत्रों को उपेक्षित करके केवल शहरीकरण को विकास का आदर्श मानने का विचार भी इसी नीति का हिस्सा था। अंग्रेजों का यह दावा था कि भारतीय ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्र, आर्थिक दृष्टि से पिछड़े और अविकसित हैं, जबकि शहरी क्षेत्र ही प्रगति और विकास के असली केंद्र हैं। इस प्रकार, ग्रामीण भारत और उसकी समृद्धि को नज़रअंदाज़ करने की प्रवृत्ति अंग्रेजों के शासनकाल में देखी गई और इसका असर आज भी भारतीय समाज पर है।

पश्चिमी देशों ने भारतीय सनातन संस्कृति पर भी प्रहार करने का काम किया। उन्होंने भारतीय त्योहारों, परंपराओं, और धार्मिक आस्थाओं को निशाना बनाया। उदाहरण के तौर पर, दिवाली के फटाकों को पर्यावरण के लिए हानिकारक बताया गया, होली को पानी की बर्बादी से जोड़ा गया, और शिवरात्रि पर दूध चढ़ाने को भोजन की बर्बादी का प्रतीक बना दिया गया। इसके विपरीत, पश्चिमी त्योहारों को पूरी दुनिया में धूमधाम से मनाया जाता है, और उन्हें पर्यावरण या संसाधनों की हानि के संदर्भ में कभी नहीं देखा जाता।

यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि भारतीय संस्कृति और उसके धार्मिक आयोजन सिर्फ आस्था का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि वे सामूहिक समाज के ताने-बाने का अहम हिस्सा हैं। ये त्योहार सामुदायिकता, सामाजिक सौहार्द और पारिवारिक एकता को बढ़ावा देते हैं, जो पश्चिमी समाजों की तुलना में एक बड़ा अंतर दिखाता है।

आजकल “माई बॉडी, माई चॉइस” और “भारत में रहना डरावना है” जैसे नारे, विदेशी मीडिया और कुछ खास समूहों द्वारा गढ़े जा रहे हैं, ताकि भारतीय समाज में भ्रम और असंतोष फैलाया जा सके। वाशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, और बीबीसी जैसी मीडिया संस्थाएं बार-बार यह धारणा फैलाने की कोशिश करती हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय हो रहा है, जबकि जमीनी सच्चाई इससे कहीं अलग है। 2002 की घटनाओं पर आधारित बीबीसी की डॉक्युमेंट्री भी इसी सिलसिले का हिस्सा है, जो कि दो दशक पुरानी घटनाओं को आज फिर से उठाकर भारतीय समाज में विभाजन की लकीरें खींचने का प्रयास करती है।

पश्चिमी देशों और उनकी संस्थाओं ने भारत के आर्थिक विकास पर भी सवाल उठाए। उदाहरण के लिए, अडानी समूह, जो कि भारत में आधारभूत संरचना के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभा रहा है, को “हिंडनबर्ग” जैसी रिपोर्टों के जरिए बदनाम करने की कोशिश की गई। यह रिपोर्ट केवल अडानी समूह को नहीं, बल्कि पूरे भारत की आर्थिक प्रगति को रोकने का एक प्रयास था। इसी प्रकार, हंगर इंडेक्स और हैप्पीनेस इंडेक्स जैसी अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग्स में भी भारत को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता है। यहां तक कि जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका का दौरा करते हैं, तो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जैसे नेता भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर विपरीत टिप्पणियां करते हैं। यह सभी घटनाएं इस बात का संकेत देती हैं कि भारत के खिलाफ एक सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है।

पश्चिमी देशों की विचारधारा और भारतीय सनातन संस्कृति में मूलभूत अंतर है। पश्चिम में व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया जाता है, जबकि भारत में व्यक्ति से ज्यादा समाज और परिवार को महत्व दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार एक महत्वपूर्ण इकाई है, जो आपसी सहयोग, स्नेह और सहजीवन का आदर्श प्रस्तुत करती है। वहीं पश्चिमी समाजों में व्यक्तिवाद को इतना महत्व दिया गया है कि 18 वर्ष की आयु के बाद बच्चे अपने माता-पिता से अलग हो जाते हैं।

बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारतीय संयुक्त परिवार व्यवस्था को तोड़ने के लिए भी तरह-तरह के प्रयास कर रही हैं। वे ऐसे टीवी शोज़ और विज्ञापनों का प्रसार कर रही हैं, जिनमें संयुक्त परिवारों की कमियां दिखाई जाती हैं, और छोटे परिवारों के फायदे बताए जाते हैं। इसका सीधा उद्देश्य यह है कि ज्यादा से ज्यादा परिवार टूटें और नई चीजों की मांग बढ़े, जिससे उनके उत्पादों की बिक्री में वृद्धि हो।

पश्चिमी देशों द्वारा गढ़े जा रहे इन झूठे विमर्शों का मुकाबला करने के लिए भारतीय समाज को जागरूक होने की आवश्यकता है। इसके लिए हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि किस प्रकार से विदेशी ताकतें हमारे त्योहारों, परंपराओं, और धार्मिक मान्यताओं पर प्रहार कर रही हैं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यदि किसी विज्ञापन में भारतीय परंपराओं का अपमान हो रहा है, तो उस उत्पाद का बहिष्कार किया जाए। अगर किसी फिल्म में भारतीय संस्कृति का मजाक उड़ाया जा रहा है, तो उस फिल्म को नकारा जाए।

इसके अलावा, हमें भारतीय परंपराओं के महत्व को फिर से स्थापित करना होगा। दिवाली पर फटाके जलाना केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने का हिस्सा है। होली का पानी भी एक प्रतीकात्मक क्रिया है, जो सामाजिक बंधनों को मजबूत करने का काम करता है। इन परंपराओं का आदर करना और इन्हें बनाए रखना हमारी जिम्मेदारी है।

भारतीय सनातन संस्कृति पर झूठे विमर्शों का खेल सदियों से चलता आ रहा है, और आज भी यह प्रक्रिया जारी है। पश्चिमी देशों और उनकी संस्थाओं द्वारा भारतीय संस्कृति, परंपराओं, और आर्थिक विकास पर लगातार प्रहार किए जा रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज को जागरूक होकर, अपनी संस्कृति की सुरक्षा और प्रचार-प्रसार के लिए एकजुट होना होगा। आज समय की मांग है कि हम अपनी परंपराओं पर गर्व करें और उन पर हो रहे हमलों का सटीक और प्रभावी तरीके से प्रतिकार करें। इसी से भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर सुरक्षित रह सकेगी, और हम आने वाली पीढ़ियों को एक समृद्ध विरासत दे पाएंगे।