– पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
झारखंड में विधानसभा चुनाव के माहौल ने एक बार फिर से सियासी पारा चढ़ा दिया है। पर इस बार चुनावी चर्चाओं में सबसे अधिक ध्यान भाजपा के विधायकों के अतिआत्मविश्वास पर केंद्रित है। मात्र स्टार प्रचारकों के डीएम पर किसने चुनाव जीता है ! चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से भाजपा प्रत्याशियों ने जनता से संवाद स्थापित करने में ढिलाई बरती, उससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या झारखंड की जनता उनके इस रवैये को स्वीकार कर पाएगी?
बीते चुनावों में भाजपा ने राष्ट्रवाद, विकास और परिवारवाद के विरोध जैसे मुद्दों पर झारखंड में मजबूत पकड़ बनाई थी। पर्याप्त सीटें नहीं ला पाई ये अलग बात है। पर इस बार भाजपा खुद परिवारवाद और चाटुकारिता के आरोपों से अछूती नहीं रह सकी। झारखंड की जनता ने भाजपा को एक राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में देखा, जो क्षेत्रीय दलों के मुकाबले अपने अनुशासन और सादगी के लिए पहचानी जाती थी। लेकिन इस बार पार्टी की रणनीति और कार्यशैली में भारी बदलाव देखा गया।
बोकारो: बदलाव की आहट?
बोकारो विधानसभा सीट इस बार सबसे अधिक चर्चाओं में है। श्वेता सिंह, जो भाजपा के मुकाबले विपक्षी खेमें से मैदान में हैं, ने अपने प्रभावशाली चुनाव प्रचार और जमीनी जुड़ाव से मजबूत उपस्थिति दर्ज की है। वे शहरी इलाकों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में भी पूरी सक्रिय रहीं, जिससे जनता के बीच उनकी पकड़ मजबूत होती दिख रही है। दूसरी ओर, भाजपा के मौजूदा विधायक विरंची नारायण पर एंटी-इंकम्बेंसी की छाया साफ दिख रहा है। अतिआत्मविश्वास में उनका सबको साथ ले कर ना चलना भी घातक साबित हो सकता है।
बोकारो की जनता, जो विकास और सुशासन की उम्मीद के साथ भाजपा को वोट देती आई है, इस बार असमंजस में है। चुनाव प्रचार के दौरान श्वेता सिंह और उनके समर्थकों का जोश, उनकी व्यापक पहुंच, और जनता से संवाद ने माहौल को भाजपा के खिलाफ झुका दिया है। इस बार भाजपा के लिए यह सीट बचाना आसान नहीं होगा।
चंदनकियारी: निराशा और बदलाव की मांग
चंदनकियारी विधानसभा सीट भी इसी तरह की कहानी बयां कर रही है। मौजूदा विधायक ने जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ साथ स्थानीय पत्रकारों तक को ‘परिवार’ कहने में पीछे नहीं रहे, लेकिन व्यवहारिकता में यह शब्द मात्र छलावा बनकर रह गया। पांच साल के कार्यकाल में जनता के लिए ठोस काम करने के बजाय केवल आश्वासनों की बौछार की गई। नतीजतन, चंदनकियारी में भी बदलाव की लहर स्पष्ट दिखाई दे रही है।
भाजपा प्रत्याशियों का अतिआत्मविश्वास: एक बड़ी चुनौती
एनडीए के घटक दलों ने इस चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है, लेकिन भाजपा के कई प्रत्याशी अतिआत्मविश्वास और ढिलाई के शिकार दिखे। घुसपैठ, भ्रष्टाचार, और आदिवासी कल्याण जैसे मुद्दे प्रभावशाली हो सकते थे, लेकिन जमीन पर कमजोर उपस्थिति और जनता से संवाद की कमी ने इन मुद्दों की धार को कुंद कर दिया।
पार्टी के कई विधायकों ने पुरे काल अपने क्षेत्रों में काम न करने और जनता से दूरी बनाए रखने की गलती की है। चुनाव प्रचार में भी उनकी सक्रियता मानो नगण्य रही। ऐसा लगता है कि वे मोदी सरकार की लोकप्रियता और प्रधानमंत्री के नाम पर ही अपनी नैया पार कराने की उम्मीद में बैठे रहे। लेकिन यह रणनीति झारखंड की जमीनी सच्चाई से मेल नहीं खाती।
केंद्रीय भाजपा की नई चुनौती
झारखंड में भाजपा की रणनीति को लेकर यह सवाल उठता है कि क्या केंद्रीय नेतृत्व राज्य इकाई की कमजोरियों को सुधारने के लिए कदम उठाएगा? झारखंड के भाजपा कार्यकर्ताओं में इस बार जोश की कमी साफ झलक रही है। पार्टी के कई काडर शिथिल रहे, और जमीनी स्तर पर मोदी की लोकप्रियता को भुनाने के लिए आवश्यक मेहनत नहीं की गई।
झारखंड भाजपा के विधायकों की फेहरिस्त पर एक बार फिर विचार करने की जरूरत है। पार्टी को यह समझना होगा कि केवल केंद्रीय नेतृत्व के दम पर चुनाव नहीं जीते जा सकते। स्थानीय मुद्दों और जनसरोकारों पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है।
झारखंड का भविष्य: 23 नवंबर के परिणाम
आज चुनाव के लिए मतदान हो रहे हैं। जनता अपने वोट डाल देगी, और अब नतीजों का इंतजार है। 23 नवंबर को आने वाले परिणाम यह तय करेंगे कि झारखंड की जनता भाजपा के प्रत्याशियों को माफ करती है या बदलाव का रास्ता चुनती है।
हालांकि, झारखंड में इस बार का चुनाव यह संकेत देता है कि भाजपा को अपनी रणनीति में बदलाव करने की आवश्यकता है। परिवारवाद, ढुलमुल प्रचार, और स्थानीय मुद्दों की अनदेखी ने झारखण्ड में भाजपा की साख पर सवाल खड़े किए हैं। पार्टी को यह समझना होगा कि जनता की नाराजगी को दूर करने के लिए केवल राष्ट्रवाद का कार्ड खेलना पर्याप्त नहीं है।
झारखंड की राजनीति में भाजपा सीटों पर बदलाव के आसार साफ नजर आ रहे हैं। भाजपा के मौजूदा विधायकों पर जनता की नाराजगी भारी पड़ सकती है। यह देखना दिलचस्प होगा कि भविष्य में भाजपा इस चुनौती का सामना कैसे करती है और क्या राज्य में अपनी पकड़ मजबूत रख पाती है।
झारखंड में भाजपा के लिए यह चुनाव एक परीक्षा की तरह है। अब तो तीर कमान से निकल चूका है। राष्टवाद, भ्रष्टाचार और आदिवासियों वाला मुद्दा अगर चल गया तो बहुत संभव है एनडीए पर्याप्त सीटें जीत भी ले। बावजूद उसके अगर पार्टी अपने अतिआत्मविश्वास को छोड़कर जनता से जुड़ने और उनकी समस्याओं को हल करने की कोशिश नहीं करेगी, तो आगामी वर्षों में झारखंड जैसे राज्यों में अपनी पकड़ बनाए रखना कठिन होगा। अब समय आ गया है कि भाजपा झारखंड की जमीनी हकीकत को समझे और राज्य में अपनी रणनीति को नए सिरे से गढ़े। 23 नवंबर का परिणाम केवल झारखंड की राजनीति को ही नहीं, बल्कि भाजपा की भावी रणनीति को भी दिशा देगा।