-पूर्णेन्दु सिन्हा ‘पुष्पेश ‘
हाल ही में संपन्न हुए झारखंड विधानसभा चुनावों में हेमंत सोरेन के नेतृत्व में इंडि गठबंधन (आईएनडीआईए) की जीत ने राजनीति में एक नई उम्मीद जगाई है। चुनाव, लोकतंत्र की नींव होते हैं और इनके माध्यम से जनता अपनी अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को सरकार तक पहुंचाती है। झारखंड का यह चुनाव न केवल क्षेत्रीय राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करेगा, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी नई दिशा देने की क्षमता रखता है।
चुनाव लोकतांत्रिक व्यवस्था का उत्सव हैं। यह प्रक्रिया अपने आप में जनभागीदारी, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के मूल्यों को सुदृढ़ करती है। चुनावी परिणामों को स्वीकार करना और उसके अनुरूप अपनी भूमिका को निभाना सभी राजनीतिक दलों और जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी है। जीतने वाले और हारने वाले दोनों के कार्यक्षेत्र और उत्तरदायित्व अलग-अलग होते हैं, लेकिन दोनों का अंतिम लक्ष्य जनसेवा और जनकल्याण होना चाहिए।
जीत और हार का लोकतांत्रिक संदेश
विजेता का कार्य है कि वह जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरे और उनके हितों को प्राथमिकता दे। वहीं, पराजित दल को आत्ममंथन करते हुए जनसेवा के अन्य अवसरों का लाभ उठाना चाहिए। चुनावी हार का मतलब यह नहीं कि उनकी आवाज का कोई महत्व नहीं। लोकतंत्र में हर विचार और हर मुद्दे का महत्व है। झारखंड चुनावों में यह स्पष्ट दिखा कि जनता ने एक स्थायी और जनोन्मुखी नेतृत्व को प्राथमिकता दी।
हालांकि, चुनावों के दौरान उठाए गए कई मुद्दे—जैसे शिक्षा, रोजगार , स्वास्थ्य, पर्यावरण, घुसपैठ, और धर्मांतरण—पर अब सरकार और विपक्ष को समान रूप से सक्रिय रहना होगा। लोकतांत्रिक प्रणाली की सच्ची सफलता तभी है जब ये मुद्दे चुनावी मंचों तक सीमित न रहकर वास्तविक नीति-निर्माण और कार्यान्वयन का हिस्सा बनें।
शिक्षा और सामाजिक असमानता: एक गंभीर चुनौती
झारखंड चुनावों ने एक बार फिर शिक्षा के क्षेत्र में मौजूद गहरी असमानताओं को उजागर किया। सरकारी और निजी स्कूलों के बीच बढ़ती खाई न केवल झारखंड, बल्कि पूरे भारत के लिए चिंता का विषय है। यह असमानता न केवल आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित वर्गों को हाशिए पर धकेल रही है, बल्कि संविधान की आत्मा के खिलाफ भी है।
डॉ. अंबेडकर ने जिस समतावादी समाज की कल्पना की थी, वह शिक्षा के बिना अधूरी है। हर बच्चे को, चाहे वह किसी भी सामाजिक, आर्थिक या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आता हो, समान शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन, झारखंड जैसे राज्यों में यह अधिकार अब भी एक सपना है। सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार और निजी शिक्षा प्रणाली के बेहतर नियमन की तत्काल आवश्यकता है।
राजनीतिक दलों और नीति निर्माताओं को शिक्षा को प्राथमिकता देनी होगी। चुनाव के दौरान शिक्षा से जुड़े मुद्दों को खूब उठाया गया, लेकिन अब यह देखना महत्वपूर्ण है कि सरकार इन्हें लागू करने के लिए कितनी तत्परता दिखाती है। यह सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि विपक्ष की भी है कि वह शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार को जवाबदेह बनाए।
झारखंड में रोजगार और पलायन: विकास की नई चुनौती
झारखंड के चुनावी परिणाम केवल लोकतंत्र की जीत नहीं हैं; वे राज्य की सबसे जटिल समस्याओं—रोजगार और पलायन—पर भी ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता को उजागर करते हैं। रोजगार के अभाव और इसके कारण बड़े पैमाने पर होने वाले पलायन ने झारखंड की प्रगति को गहरी चुनौती दी है।
झारखंड मुख्यतः खनिज संसाधनों पर आधारित अर्थव्यवस्था वाला राज्य है, लेकिन औद्योगिक और बुनियादी ढांचे के विकास की कमी के कारण यहां रोजगार के अवसर सीमित हैं। यह विडंबना है कि इतने समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद राज्य के युवा बेहतर रोजगार के लिए बड़े शहरों या अन्य राज्यों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं।
पलायन झारखंड के लिए सिर्फ एक आर्थिक समस्या नहीं है, बल्कि यह सामाजिक असंतुलन का कारण भी बनता है। हर साल हजारों युवा, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों से, बड़े शहरों में अस्थायी मजदूरी करने के लिए जाते हैं। इससे न केवल उनके परिवार टूटते हैं, बल्कि उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा पर भी बुरा असर पड़ता है। हेमंत सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह रोजगार के स्थायी अवसर पैदा करे और पलायन को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए।
स्वास्थ्य और पर्यावरण: उपेक्षा नहीं, निरंतरता चाहिए
चुनावों के दौरान स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे मुद्दे भी बहस का हिस्सा बने। झारखंड, जहां प्राकृतिक संसाधनों की भरमार है, वहां पर्यावरण संरक्षण को नजरअंदाज करना भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। खनन और वनों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ रहा है। आपकी पाली में झारखण्ड सरकार को चाहिए कि वह विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाए।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में झारखंड अब भी पिछड़ा हुआ है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और शहरी क्षेत्रों में उनका महंगा होना आम जनता को परेशान कर रहा है। चुनावी वादों में इन समस्याओं का समाधान सुझाया गया, लेकिन इसे लागू करना अब सरकार के लिए बड़ी चुनौती है।
घुसपैठ और धर्मांतरण: राजनीतिक मुद्दे या सामाजिक समस्या?
घुसपैठ और धर्मांतरण जैसे मुद्दे भी झारखंड में लंबे समय से चर्चा का विषय रहे हैं। राजनीतिक दलों ने इन मुद्दों को चुनावी मंच पर खूब उछाला, लेकिन इनका समाधान खोजना बेहद जरूरी है। घुसपैठ एक राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय है, जबकि धर्मांतरण सामाजिक सौहार्द को प्रभावित करता है। झारखण्ड सरकार को चाहिए कि वह इन मुद्दों पर संतुलित और निष्पक्ष नीति अपनाए।
चुनावी मुद्दों को वास्तविकता में बदलने की जरूरत
यह जरूरी है कि चुनावी वादे सिर्फ मंचों पर न रह जाएं। सरकार को जनहित में ठोस कदम उठाने होंगे। झारखंड के लिए यह एक अवसर है कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण और सामाजिक न्याय के क्षेत्रों में नई मिसाल कायम करे।
विपक्ष को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। उसे केवल विरोध के लिए विरोध करने के बजाय रचनात्मक सुझाव और सकारात्मक आलोचना के माध्यम से सरकार को जनहित में बेहतर काम करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
लोकतंत्र की सच्ची सफलता
झारखंड का चुनाव परिणाम लोकतंत्र की सच्ची सफलता का प्रतीक है। यह दिखाता है कि जनता अपने नेताओं से क्या अपेक्षा रखती है और किसे अपने भविष्य का मार्गदर्शक मानती है। अब यह जीतने वाली सरकार और विपक्ष पर निर्भर करता है कि वे इस जनादेश का कितना सम्मान करते हैं और किस प्रकार झारखंड को विकास के पथ पर आगे ले जाते हैं।
लोकतंत्र सिर्फ चुनाव जीतने तक सीमित नहीं है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है, जिसमें जनता, सरकार और विपक्ष की भूमिका समान रूप से महत्वपूर्ण है। झारखंड का चुनाव इस बात का प्रमाण है कि जब जनता जागरूक होती है, तो वह अपने लिए सबसे बेहतर विकल्प चुनती है। अब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस विश्वास को बनाए रखे और अपने वादों को पूरा करे और झारखण्ड के चातुर्दिक विकास के लिए काम भी करे।