- PURNENDU PUSHPESH, Chief Editor
आज के राजनीतिक वातावरण का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि सभी राजनीतिक दलों के अपने-अपने एजेंडे हैं। हर दल अपनी बात को सही और दूसरों की बात को गलत साबित करने के तर्क देता है। यह राजनीति की सकारात्मक दिशा नहीं मानी जा सकती। आजकल राजनीति का मुख्य उद्देश्य एक-दूसरे की गलतियां निकालना बन गया है। यह नकारात्मक राजनीति आम जनता में भटकाव पैदा करती है।
जनता, सरकार के विरोध में विचार रखने पर, विपक्ष की हर बात को सही मान लेती है और जो विपक्ष की बातों पर भरोसा नहीं करते, वे सत्ता पक्ष की बात मानने के लिए मजबूर होते हैं। वास्तव में, ऐसी राजनीति के बजाय देश हित की राजनीति की जानी चाहिए। लेकिन आज के माहौल में यह संभव नहीं लगता। देश में भाजपा के नेतृत्व में तीसरी बार सरकार बनी है, लेकिन विपक्ष इस बहुमत वाली सरकार को पराजित सरकार कहकर लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहा है। हालांकि विपक्ष पहले से मजबूत हुआ है, पर उसे खुले मन से स्वीकार करने की मानसिकता बनानी होगी।
राजनीति में सकारात्मक दिशा के अभाव में देश को जो नुकसान उठाना पड़ता है, वह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई नहीं देता, लेकिन समाज पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ता है। अगर यह प्रभाव नकारात्मक चिंतन की धारा को गति देने वाला होगा तो देश को भी अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ेगा। वर्तमान में जिस प्रकार की राजनीति की जा रही है, उसे भटकाव पैदा करने वाली राजनीति कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
समाचार माध्यमों पर सामयिक विषयों पर चर्चा होती है, लेकिन इन चर्चाओं में पूर्वाग्रह से ग्रस्त व्यक्तियों को ही शामिल किया जाता है। दूसरे की बात को नकारना ही इन चर्चाओं का एकमात्र सिद्धांत बनता जा रहा है। कोई एंकर अगर भारत के चिंतन पर आधारित कोई तथ्य रखता है तो उसे किसी राजनीतिक दल का समर्थक बताने में कोताही नहीं की जाती। अधिकांश पत्रकार और समाचार पत्र किसी न किसी राजनीतिक दल का समर्थन करते हैं या विरोध की शैली अपनाते हैं। हालांकि, कुछ समाचार चैनल निष्पक्ष तरीके से बहस कराते हैं, जहां एंकर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से ही सवाल करते हैं। ऐसे में एंकर को सवालों के घेरे में खड़ा करना ठीक नहीं कहा जा सकता।
आजकल डिबेट में विपक्ष ऐसा व्यवहार करता है जैसे उन्होंने भाजपा को हरा दिया है। विजयी सांसदों की संख्या बताने पर तर्क-वितर्क प्रारंभ हो जाता है। जब यह तर्क-वितर्क से आगे बढ़कर कुतर्क की शैली में आ जाता है तो विवाद होने लगता है। राजनेताओं को राजनीतिक लड़ाई केवल दलीय आधार पर करनी चाहिए, लेकिन पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर अपने तरकस से तीर निकालने का प्रयास किया जाता है। भाजपा का प्रवक्ता तीसरी बार सरकार बनाने की बात को लोकतंत्र की विजय निरूपित करता है, तो इसमें गलत क्या है? विपक्ष को इसे खुले मन से स्वीकार करना चाहिए। सच बहुत कड़वा होता है, लेकिन इसे स्वीकार करना सीखने से ही कुतर्क की चेष्टा नहीं होती।
लोकतंत्र की परिभाषा जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन है। राजनेता मात्र जनता के प्रतिनिधि हैं। लेकिन वर्तमान में राजनेता स्वयं को जनता से ऊपर मानने लगे हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं, जो जनता की पहली पसंद को दर्शाता है। भाजपा को 240 सीटें मिली हैं, जबकि अन्य दल तीन अंकों की संख्या तक भी नहीं पहुंचे हैं। विपक्ष सरकार बनाने में सफल नहीं हो सका, इसे हार ही कहा जाएगा। लेकिन विपक्ष इसे अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर रहा है। कांग्रेस ने अपनी स्थिति में सुधार करते हुए प्रदर्शन किया हो, लेकिन इसे बड़ी जीत नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस का प्रदर्शन उसके अपने परिश्रम का परिणाम नहीं है। उत्तर प्रदेश में सपा का समर्थन न होता तो कांग्रेस की स्थिति क्या होती, यह अनुमान लगाया जा सकता है। यहां सपा ने बेहतर प्रदर्शन किया है, जबकि कांग्रेस राष्ट्रीय दल होते हुए भी सपा से बहुत पीछे है।
तर्क-वितर्क और कुतर्क की राजनीति भ्रम की स्थिति पैदा करती है। इस प्रकार की राजनीति का कोई ठोस आधार नहीं होता। राजनेताओं को समझना होगा कि राजनीति का उद्देश्य देश को सही दिशा में ले जाना होना चाहिए, न कि मात्र अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना। देशहित की राजनीति ही लोकतंत्र की सच्ची विजय है।