झारखंड में भाजपा की रणनीति पर प्रश्नचिन्ह

सम्पादकीय : पूर्णेन्दु पुष्पेश। 

बुधवार को बोकारो, धनबाद, गिरिडीह सहित झारखण्ड के कई विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा की रायशुमारी बैठक में जमकर हंगामा हुआ। प्रत्याशी चयन के लिए कार्यकर्ताओं से तीन दावेदारों की सूची मांगी गई, लेकिन इस प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी की शिकायतें आईं। कई भाजपा कार्यकर्ता इस बात से नाराज़ थे कि उनकी वोटिंग लिस्ट से नाम हटा दिए गए, जिससे बैठकों में असंतोष का माहौल बन गया। ये घटनाएं एक बार फिर भाजपा की आंतरिक राजनीति और चुनावी रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं। क्या शीर्ष नेतृत्व यह देख पा रहा है कि राज्य में जमीनी कार्यकर्ताओं के असंतोष का यह उभरता स्वर आगामी चुनावों में पार्टी के लिए खतरनाक साबित हो सकता है?

भाजपा के अंदर यह असंतोष अचानक नहीं आया है। झारखण्ड में निवर्तमान विधायकों और नेताओं के प्रति जनता और कार्यकर्ताओं में गहरा असंतोष है। स्थानीय भाजपा समर्थक नए चेहरों की मांग कर रहे हैं, जो क्षेत्रीय मुद्दों और जनता की जरूरतों को बेहतर तरीके से समझते हों। लेकिन प्रत्याशी चयन प्रक्रिया में कई कार्यकर्ताओं का यह दावा कि उनके समर्थकों के नाम जानबूझकर हटा दिए गए, पार्टी की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।

भाजपा, जिसे कार्यकर्ताओं की पार्टी कहा जाता है, में जब कार्यकर्ता ही असंतुष्ट हो जाएं, तो यह पार्टी के लिए खतरनाक संकेत है। सवाल यह उठता है कि भाजपा नेतृत्व क्यों उन नेताओं को टिकट देने पर जोर दे रहा है, जिनसे जनता और कार्यकर्ता दोनों नाखुश हैं? क्या पार्टी अपने पुराने चेहरों पर भरोसा करके एक बड़ी गलती कर रही है, जो स्थानीय मुद्दों को नजरअंदाज कर रही है?

भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को समझना होगा कि झारखण्ड में उनके लिए 2024 का विधानसभा चुनाव केवल सत्ता में वापसी का मुद्दा नहीं है, बल्कि पार्टी के भीतर की गिरती साख को भी दुरुस्त करने का समय है। वर्तमान स्थिति में, कई विधायक जनता के मुद्दों को हल करने में असफल साबित हो रहे हैं, जिसके चलते आम जनता ही नहीं, बल्कि पार्टी के कार्यकर्ता भी उनसे असंतुष्ट हो गए हैं। झारखण्ड जैसे राज्य में, जहां जनजातीय और आदिवासी वोट निर्णायक होते हैं, क्या भाजपा ऐसे कमजोर विधायकों पर निर्भर रह सकती है जो जमीनी स्तर पर जनसंपर्क में असफल रहे हैं?

बोकारो जैसी घटनाओं में विधायकों और कार्यकर्ताओं के बीच तनाव बढ़ने से पार्टी की छवि धूमिल होती है। विधायक बिरंची नारायण पर लगे आरोप इस बात का उदाहरण हैं कि किस प्रकार सत्ता में रहते हुए कुछ लोग पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को भी कुचलने का प्रयास कर रहे हैं। क्या भाजपा नेतृत्व इस मुद्दे को गंभीरता से लेगा, या इसे पार्टी के आंतरिक मामलों में महज एक विवाद मानकर अनदेखा कर देगा?

या धनबाद, गिरिडीह आदि विधानसभा क्षेत्रों में भी पार्टी अपने असंतुस्टों को उनकी महत्वकांक्षा मात्र नामित कर सब नज़रअंदाज़ कर देगी ? इस सत्र में ऐसे विरोध के स्वर या आंतरिक मीटिंगों में कड़े विरोध के स्वर पहलीबार तो नहीं उठे हैं ?  क्या ऐसे वक़्त में जब झारखण्ड में अगला विधान सभा चुनाव  सर पर है ; भाजपा नेतृत्व कब किसको या किनको कितना महत्त्व देना है इसका उचित निर्णय लेने का मन बना सकेगा ?

कहीं यह भाजपा का ‘कम्फर्ट ज़ोन’ तो नहीं है? जहां पुराने नेताओं को हटाने की बजाय कार्यकर्ताओं की आवाज़ को दबाकर, उन्हें चुप रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है। क्या शीर्ष नेतृत्व को यह नहीं दिख रहा कि कार्यकर्ता बार-बार असंतोष जाहिर कर रहे हैं, हंगामा कर रहे हैं, लेकिन उनके मुद्दों को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा? आखिर कब तक ‘बड़े नेताओं’ की छत्रछाया में झारखंड भाजपा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती रहेगी? वर्तमान स्थिति यह बताती है कि भाजपा के नेतृत्व ने झारखंड में जमीनी कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया है। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो आने वाले चुनावों में कार्यकर्ताओं का समर्थन प्राप्त करना मुश्किल होगा। जिस पार्टी का आधार ही कार्यकर्ता होते हैं, वहां जब वही असंतुष्ट हो जाएं तो पार्टी की दिशा क्या होगी?

इस बीच, हेमंत सोरेन की सरकार पूरी तरह से चुनावी रणनीति में जुटी है। उन्होंने विभिन्न योजनाओं और प्रलोभनों के जरिये झारखण्ड की जनता, विशेष रूप से आदिवासी, पिछड़े और गरीब तबकों को लुभाने का काम शुरू कर दिया है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, हेमंत सरकार अपनी योजनाओं को जोर-शोर से आगे बढ़ा रही है, ताकि वोटरों का ध्यान खींच सके। यह भाजपा के लिए एक और चुनौती है।

 हेमंत सरकार की योजनाओं में किसानों के लिए कर्ज माफी, युवाओं के लिए रोजगार योजना, आदिवासी समुदायों के लिए विशेष लाभ जैसी नीतियां शामिल हैं। ये नीतियां जनता के बीच हेमंत सरकार की लोकप्रियता को बढ़ा रही हैं।

भाजपा को यह समझना होगा कि केवल केंद्र सरकार की योजनाओं पर निर्भर रहकर झारखण्ड के चुनाव में जीत हासिल करना आसान नहीं होगा। राज्य की राजनीति में स्थानीय मुद्दों और वर्गीय संतुलन का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसे हेमंत सोरेन अपने पक्ष में करने में सफल हो रहे हैं। भाजपा के लिए यह आत्ममंथन का समय है। क्या पार्टी झारखण्ड में हेमंत सरकार की नीतियों और योजनाओं का प्रभाव सही ढंग से आंकने में सक्षम है? क्या केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे चुनाव जीतने की रणनीति पर्याप्त होगी, या पार्टी को झारखण्ड के स्थानीय मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा?

भाजपा के लिए एक और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि पार्टी के जिन विधायकों को जनता ने नकारा है, क्या उन्हें पुनः टिकट देकर भाजपा अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रही है? यह एक सत्य है कि झारखण्ड की जनता बदलाव चाहती है, और अगर भाजपा ने अपने प्रत्याशियों के चयन में सावधानी नहीं बरती, तो यह असंतोष चुनावों में हार का कारण बन सकता है।

 झारखण्ड भाजपा के भीतर बढ़ते असंतोष का मुख्य कारण पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का ह्रास है। कार्यकर्ता और नेता दोनों ही पार्टी की निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनी भागीदारी को महसूस नहीं कर पा रहे हैं। रायशुमारी जैसी बैठकों में पारदर्शिता की कमी, वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी और प्रत्याशी चयन में धांधली के आरोप यह दिखाते हैं कि भाजपा अपने आंतरिक लोकतंत्र को सुदृढ़ करने में विफल रही है।

भाजपा नेतृत्व को इस समस्या का समाधान ढूंढना होगा, और वह भी जल्दी। अगर पार्टी अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच विश्वास की कमी को दूर नहीं कर पाई, तो झारखण्ड जैसे महत्वपूर्ण राज्य में चुनावी सफलता प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा।

भाजपा को यह भी समझना होगा कि झारखण्ड जैसे राज्य में स्थानीय नेतृत्व का महत्व है। पार्टी को ऐसे नेताओं को आगे बढ़ाना होगा जो जमीनी स्तर पर मजबूत पकड़ रखते हों और स्थानीय मुद्दों को समझते हों। निवर्तमान विधायकों को हटाने का निर्णय शायद पार्टी के लिए फायदेमंद हो सकता है, अगर नए और ऊर्जावान नेताओं को मौका दिया जाए। लेकिन इसके लिए पार्टी को एक पारदर्शी और निष्पक्ष प्रक्रिया अपनानी होगी, जिसमें सभी कार्यकर्ताओं और नेताओं की राय को महत्व दिया जाए। पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत किए बिना, भाजपा झारखण्ड में हेमंत सोरेन सरकार की चुनौती का सामना नहीं कर पाएगी।

 हेमंत सोरेन की सरकार ने जनता को विभिन्न योजनाओं के जरिये लुभाने का काम शुरू कर दिया है। सरकारी कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोतरी, किसानों के लिए कर्ज माफी, गरीबों के लिए आवास योजना, और युवाओं के लिए रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं के माध्यम से हेमंत सरकार जनता के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर रही है।

 भाजपा को इन योजनाओं का प्रभाव समझना होगा और उनके मुकाबले के लिए एक ठोस रणनीति तैयार करनी होगी। अगर पार्टी इन योजनाओं को नजरअंदाज करती है, तो हेमंत सरकार की लोकप्रियता और भी बढ़ सकती है, जिससे भाजपा के लिए 2024 का विधानसभा चुनाव और भी कठिन हो जाएगा।

 भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को यह समझना होगा कि झारखण्ड में चुनावी सफलता केवल बाहरी कारकों पर निर्भर नहीं होगी। पार्टी को अपने आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करना होगा, कार्यकर्ताओं के असंतोष को दूर करना होगा, और नए नेतृत्व को मौका देना होगा। इसके साथ ही, हेमंत सोरेन सरकार की योजनाओं का मुकाबला करने के लिए भाजपा को एक ठोस और व्यावहारिक चुनावी रणनीति बनानी होगी। अगर पार्टी ने इन मुद्दों को गंभीरता से नहीं लिया, तो झारखण्ड में सत्ता की वापसी की राह कठिन हो सकती है।