गुरु पूर्णिमा, भारतीय परंपरा में एक महत्वपूर्ण दिवस है जो हमें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने वाले गुरु के प्रति आदर और कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर प्रदान करता है। गुरु हमारे आत्मबोध, आत्मज्ञान और आत्मगौरव को जागृत कर, हमारी क्षमता के अनुरूप मार्गदर्शन करते हैं। वे व्यक्ति, प्रतीक, या कोई दृश्य भी हो सकते हैं, जो हमें सही राह दिखाते हैं। इस दिन, हम अपने ज्ञानदाता को सम्मानित करते हैं और उनके द्वारा दिए गए ज्ञान से आत्मसाक्षात्कार करते हैं।
गुरु पूर्णिमा का महत्त्वपूर्ण रहस्य
गुरु पूर्णिमा की तिथि का चयन साधारण नहीं है। यह आषाढ़ माह की पूर्णिमा को मनाई जाती है, जो एक अनुसंधान का निष्कर्ष है। वर्ष की अन्य पूर्णिमाओं में चंद्रमा का शुभ्र प्रकाश धरती पर आता है, परंतु आषाढ़ की पूर्णिमा में बादल चंद्रमा के प्रकाश को अवरुद्ध कर देते हैं। इस प्रतीकात्मक संदेश के माध्यम से यह बताने का प्रयास है कि अज्ञान के बादल स्थायी नहीं होते और समय के साथ छंट जाते हैं। इसी प्रकार, गुरु हमारे अज्ञान के बादलों को दूर कर स्वज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं।
शिक्षक और गुरु में अंतर
शिक्षक, आचार्य, गुरु और सद्गुरु में भिन्नता है। शिक्षक अस्थाई होते हैं और केवल पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षा देते हैं। आचार्य व्यवहारिक पक्ष को भी सम्मिलित कर व्यक्तित्व निर्माण पर ध्यान देते हैं। जबकि गुरु शिष्य की प्राकृतिक प्रतिभा और क्षमता को समझकर पाठ्यक्रम निर्धारित करते हैं। गुरु का कार्य शिष्य की रुचि और प्राकृतिक क्षमता को ध्यान में रखकर शिक्षा और ज्ञान का निर्धारण करना है। सद्गुरु लौकिक और अलौकिक दोनों का मार्गदर्शन करते हैं।
गुरु पूजन परंपरा का आरंभ
गुरु पूजन की परंपरा भारतीय वाड्मय में प्राचीन काल से ही मिलती है। भगवान शिव को परम् गुरु माना गया है। आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु महत्ता स्थापना का विवरण त्रेता युग से मिलता है। भगवान शिव ने इस तिथि को भगवान परशुराम जी को शिष्य रूप में स्वीकार किया था। महर्षि व्यास का जन्म भी इसी तिथि को हुआ, जिन्होंने वेदों का भाष्य तैयार किया।
गुरु के प्रतीक: प्राणी, प्रकृति, ग्रंथ और ध्वज
समय के साथ गुरु परंपरा का विस्तार हुआ और ऋषियों के साथ अन्य प्रतीकों को भी गुरु रूप में मानने की परंपरा बनी। भगवान दत्तात्रेय जी के चौबीस गुरु में पृथ्वी, जल, अग्नि और आकाश शामिल हैं। राजा जनक के तीन गुरु में वेद भी शामिल हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ध्वज को गुरु रूप में स्वीकारा। संघ के स्वयंसेवक गुरु पूर्णिमा पर ध्वज का पूजन करते हैं।
स्वाभिमान और आत्मबोध का प्रतीक ध्वज
ध्वज, विशेष रूप से भगवा ध्वज, भारत राष्ट्र का प्रतीक है। यह शिक्षा, संस्कार, सात्विकता और स्वाभिमान का प्रतीक है। आचार्य चाणक्य ने भगवा ध्वज को भारत राष्ट्र की पहचान और मान का प्रतीक माना। भगवा ध्वज प्रत्येक भारतीय को उसके स्वत्व और स्वाभिमान का बोध कराता है। गुरु पूर्णिमा पर आत्मचिंतन और अपने राष्ट्रगौरव की पुनर्प्रतिष्ठा का संकल्प लेकर इस पर्व को सार्थक बना सकते हैं।
गुरु पूर्णिमा हमें आत्मज्ञान और स्वाभिमान की दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। यह दिन हमें हमारे ज्ञानदाता गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने और उनके मार्गदर्शन में आत्मबोध और राष्ट्रगौरव की प्राप्ति का संकल्प लेने का अवसर प्रदान करता है।